Monday, February 6, 2012

मर्द और औरत







हमने कुछ बनी बनाई रस्मो को निभाया ;
और सोच लिया कि;
अब तुम मेरी औरत हो और मैं तुम्हारा मर्द !!

लेकिन बीतते हुए समय ने जिंदगी को ;
सिर्फ टुकड़ा टुकड़ा किया ….

तुमने वक्त को ज़िन्दगी के रूप में देखना चाहा
मैंने तेरी उम्र को एक जिंदगी में बसाना चाहा .
कुछ ऐसी ही सदियों से चली आ रही बातो ने ;
हमें  एक दुसरे से , और दूर किया ....!!!

प्रेम और अधिपत्य ,
आज्ञा और अहंकार ,
संवाद और तर्क-वितर्क ;
इन सब वजह और बेवजह की  बातो में ;
मैं और तुम सिर्फ मर्द और औरत ही बनते गये ;
इंसान भी न बन सके अंत में ...!!!

कुछ इसी तरह से ज़िन्दगी के दिन ,
तन्हाईयो की रातो में  ढले ;
और फिर तनहा रात उदास दिन बनकर उगे .

फिर उगते हुए सूरज के साथ ,
चलते हुए चाँद के साथ ,
और टूटते हुए तारों के साथ ;
हमारी चाहते बनी और टूटती गयी '
और आज हम अलग हो गये है ..

बड़ी कोशिश की जानां ;
मैंने भी और तुने भी ,
लेकिन ....
न मैं तेरा पूरा मर्द बन सका
और न तू मेरी पूरी औरत !!

खुदा भी कभी कभी
अजीब से शगल किया करता है ..!!
है न जानां !!


55 comments:

  1. पता नही कैसा सच है
    अजब उसकी माया अजब उसका संसार
    जीवन की आपाधापी मे मिल ना पाया प्यार्
    और मर्द मर्द रह गया और औरत औरत
    चल तू भी अपनी हर हसरत निकाल ले खुदाया
    यूँ ही नही खेलने को मिला करते खिलौने.......
    किसी की हसरतों पर ही ख्वाबों के महल खडे होते हैं ……
    चल आज तुझे भी ये बता दें
    मर्द और औरत का फ़र्क समझा दें
    अब क्या शिकवा करें ये बाजी तुझे जिता दें ………

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  2. आदम और हव्वा को अपने नंगेपन का एहसास तब तक नहीं हुआ जब तक ज्ञान का फल नहीं खाया , ज्ञान आया और सब गुड-गोबर हो गया और यह कहानी यहाँ तक चली आयी

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  3. बहुत ही बढ़िया सर !

    सादर

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  4. सब खुदा का करम है...हम आप कठपुतलियाँ..

    उत्तम रचना!

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  5. हजारों ख्वाईशें ऐसी ...

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  6. सब उस ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है, फिर नजरिया अपना-अपना...

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  7. फिर उगते हुए सूरज के साथ ,
    चलते हुए चाँद के साथ ,
    और टूटते हुए तारों के साथ ;
    हमारी चाहते बनी और टूटती गयी '
    और आज हम अलग हो गये है ..
    Bas ek shabd...aah!

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  8. एकदम एक साल हुए. मेरी तथाकथित अर्धांगिनी नहीं रही. कविता के बोलों में मैं खोता जा रहा था.

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  9. बड़ी कोशिश की जानां ;
    मैंने भी और तुने भी ,
    लेकिन ....
    न मैं तेरा पूरा मर्द बन सका
    और न तू मेरी पूरी औरत !!

    ...बहुत खूब! बहुत भावमयी सशक्त अभिव्यक्ति..

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  10. bahut hi achcha likhte hai ap....badhiya

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  11. प्रेम और अधिपत्य ,
    आज्ञा और अहंकार ,
    संवाद और तर्क-वितर्क ;
    इन सब वजह और बेवजह की बातो में ;
    मैं और तुम सिर्फ मर्द और औरत ही बनते गये ;
    इंसान भी न बन सके अंत में ..

    काव्य में सच को सटीक शब्दों में उकेर पाना
    सचमुच बड़ा ही मुश्किल और जोखिम बहरा कार्य है
    लेकिन विजय सप्पत्ति की लेखनी का जादू
    जब चलता है तो साहित्य की हर विधा को
    लोगों के मनों की गहराई तक ले जाने में
    सफल रहता है
    प्रस्तुत रचना में आदम और हव्वा के पृष्ठ भूमि से होते हुए आज के शाश्वत सच को बड़ी खूबी से
    बयान किया गया है ... वाह !
    मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए
    आपने अपनी
    सशक्त काव्य कुशलता का परिपक्व परिचय दिया है
    बधाई स्वीकारें .

    "दानिश"

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  12. यदि पारिवारिक जीवन को लेन-देन की तराज़ू पर तोलें, तो निश्चय ही भविष्य अंधकारमय होगा॥

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  13. Vijay ji...

    Jindgi ki patri par samjauta express daudayen...
    Aah se aaha ka marham khoob lagayen...

    Khud ko mard na samjhen bandhu..
    Na unko aurat maanne..
    Mitr, sakha, ardhangini teri
    Sahchar, sahbhagi jaanen...

    Saadar...

    Deepak..

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  14. बेहतरीन रचना.


    आभार.

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  15. शाश्वत सच ह जो बहुत ही सहज शब्दों में कह दिया आपने....

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  16. खुदा भी कभी कभी
    अजीब से शगल किया करता है ..!!

    जिसे जानता भी वह खुद ही है. सुंदर प्रस्तुति.

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  17. comment by email :

    Archana Painuly to me :


    अति सुंदर!
    अर्चना

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  18. खुदा भी कभी कभी
    अजीब से शगल किया करता है ..!!

    जिसे जानता भी वह खुद ही है. सुंदर प्रस्तुति.

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  19. comment by email :

    Shilpa Sontakke to me


    Bhai Shri Vijayji,
    Namaskar,

    Aapki nai kavita acchi hai, magar
    heavy hai.jindagi ka ye stark saty.Badhai.

    Regards,
    Shilpa

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  20. comment by email :

    priyanka trivedi


    really very good poem .....

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  21. ये प्रेम ...
    एक अजीब सी आग में जल रहा था
    जिसमें ,शीतलता और जलन
    एक साथ थी ,
    पर मुझ पर ,
    ये आग बन कर बरसी तो ....
    मेरी खुद की पहचान
    ख़ाक हो गई |

    प्यार कब हमको
    मर्द और औरत में ,
    बाँट देता हैं ...
    वजूद की दीवारे
    कब ...दोनों के बीच
    आ जाती हैं ..
    और प्यार विलीन हो कर
    बाँट देता हैं हमको
    मर्द और औरत के रूप में ||........अनु

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  22. बहुत सुन्दर कविता है विजय जी.

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  23. बधाई!

    वैसे, आखिर में यह खुदा कहाँ से आ गया!

    विवरण को बिम्बों में ढाला जा सकता तो और बात होती.

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  24. Vijay ji , mere in do heron par gaur farmaaeeyega --

    DIL SE VO DOOR HAIN KABHEE DIL KE KAREEB HAI
    INSAAN KAA AE DOSTO RISHTAA AJEEB HAI

    ---------------------------------------------

    KABHEE BADTEE KABHEE GHATTEE HAI ULFAT
    KAREN KYA , AESEE HAI INSAN KEE FITRAT

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  25. बढिया अभिव्‍यक्ति।

    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

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  26. एक सुन्दर रचना ! साधुवाद !

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  27. ईश्वर ने जिसे अलग न रहने का आशीर्वाद दिया है, हम उसे अलग अलग आँकने लगते हैं..

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  28. Comment by email :

    Shiv Mishra to me


    आदरणीय विजय जी,
    आपकी कविता मर्द और औरत पढ़ी.
    बहुत सुन्दर रचना है.
    मानव-मन की गहराइयों तक पहुँच है आपके काव्य की.
    बहुत-बहुत बधाई.

    आपका
    शिव

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  29. बारीकी से पिरोया है रिश्तों के महीन ताने-बाने को जो हर किसी को आईना दिखाने में समर्थ है ..आपकी रचनाओं की यही विशेषता प्रभावित करती है .

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  30. बहुत सुंदर कविता है बहुत ही अच्छा लिखा है आपने बधाई ...समय मिले कभी तो ज़रूर आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  31. अति सुंदर! स्वागत.................वंदन...... ......... .अभिनन्दन............ ..मेरे प्रिय मित्र.. ................जय श्री राम....

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  32. कितना सही लिखा आपने विजय जी .... यही तो होता आया है ..अक्सर रिश्ते जिंदगी के कशमकश में खो जाते हैं

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  33. ---एक रिशभ देव जी ने ही बात को सही पहचाना है..बिल्कुल सही कथन है एक दम सामान्य वर्णन की बज़ाय( जिससे यह कविता की बज़ाय पढे हुए को अपने स्टेटमेन्ट में कह देना होजाता है ) कुछ सुन्दर बिम्बों में साहित्यिकता के साथ कहा जाय तो सुन्दर हो..और अन्त में कवि पटरी से उतर कर ईश्वर को गरियाने लगता है...
    ---जब सारी कविता मानव के अपने कर्मों का वर्णन है तो आखिर में बेचारे खुदा पर दोषारोपण क्यों ...पेश है...
    --"आदमी भी रोज़ न जाने,
    कैसे कैसे शगल किया करता है।
    गलतियां खुद करता है -
    दोष खुदा को दिया करता है ।"

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  34. बेहतरीन सार्थक प्रस्तुति....

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  35. सप्पती जी, पारिवारिक व्यस्तता के चलते बडे दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आई और इस सुंदर रचना से भेंट हुई । आदमी और औरत एक दूसरे को इन्सान समझे तो कोई समस्या ही ना रहे । खुदा ने तो इन्सान बनाये हमने ही उन्हे मर्द और औरत के दायरे में बांध दिया ।

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  36. बहुत सुन्दर...बेहतरीन रचना के लिए मेरी बधाई...।
    प्रियंका

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  37. bahut achchi rachna aur saath hi bahut bahut badhai

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  38. बहुत ही बढ़िया

    सादर

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  39. बहुत ही सुन्दर....यथार्थ को चरितार्थ करती हुई सुन्दर रचना..वाकई पहले एक इंसान बनना जरुरी है तकि ईश्वर की दी हुई सौगातों का आनंद उठा सकें..अपने अपने अहम की तुष्टि मे लगा है इंसान.....बधाई इस सार्थक रचना के लिए विजय जी.....

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  40. सही कहा आपने...मर्द और औरत बनने से बहुत पहले हमें इंसान बनना होगा..नहीं तो बात नहीं बनेगी...

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  41. तुमने वक्त को ज़िन्दगी के रूप में देखना चाहा
    मैंने तेरी उम्र को एक जिंदगी में बसाना चाहा .
    कुछ ऐसी ही सदियों से चली आ रही बातो ने ;
    हमें एक दुसरे से , और दूर किया ....!!!

    सारे फसाद की जड़ यही है.....!!

    बहुत ख़ूबसूरती से शब्दों में पिरोया है ज़ज्बातों को.....

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  42. जिन्दगी का यथार्थ है आपकी इस रचना में!

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  43. बहुत सुंदर कविता -

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  44. VIJAY JI , AAPKEE ANYA KAVITAAON KEE TARAH YEH KAVITA BHEE
    KHOOBSOORAT BHAAVON SE LABREZ HAI .

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  45. Khubsurat kavita... Bhaav purn aur prabhaavshaali...

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  46. बड़ी कोशिश की जानां ;
    मैंने भी और तुने भी ,
    लेकिन ....
    न मैं तेरा पूरा मर्द बन सका
    और न तू मेरी पूरी औरत !

    ...कितना खुल कर इकरार किया है!...बहुत बढ़िया!

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  47. खुदा भी कभी कभी
    अजीब से शगल किया करता है ..!!
    है न जानां !!........
    और न करे तो....
    उसे ख़ुदा कौन माने
    भाव-भीनी शगल
    सादर

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  48. बहुत अच्छी कविता, बधाई.

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  49. ये कौन सा लिंक दे दिया विजय भाई...?

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  50. आदरणीय गुरुजनों और मित्रो ;
    नमस्कार ;


    दोस्तों , आज मैंने हिंदी ब्लोगिंग पर कुछ लिखा है , आज हिंदी ब्लॉगजगत में जो कुछ भी हो रहा है , जो शोर मच रहा है , उस पर मैंने अपने विचार रखे है . आपसे अनुरोध है कि आप इसे पढ़े और अपने विचार रखिये. कृपया विवाद से बचे.


    लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.in/2012/06/blog-post.html


    अगर इस मेल से कोई दुःख या परेशानी हुई और अगर ये मेल दुबारा आया हो तो हो मुझे जरुर माफ़ किजियेंगा .

    आपका बहुत धन्यवाद.

    आपका अपना

    विजय कुमार

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  51. काव्य की धरा पर सच को बहुत खूबसूरती से उभारा है |उत्तम सृजन के लिए बधाई |

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