Wednesday, September 6, 2017

“ रे मन ”



रूह की मृगतृष्णा में
सन्यासी सा महकता है मन

देह की आतुरता में
बिना वजह भटकता है मन

प्रेम के दो सोपानों में
युग के सांस लेता है मन

जीवन के इन असाध्य
ध्वनियों पर सुर साधता है मन

रे मन
बावला हुआ जीवन रे
मृत्यु की छाँव में बस जा रे
प्रभु की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन रे मन  !


© विजय

3 comments:

  1. देह की आतुरता में
    बिना वजह भटकता है मन

    सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  2. Nice post, things explained in details. Thank You.

    ReplyDelete

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...