रूह की मृगतृष्णा में
सन्यासी सा महकता है मन
देह की आतुरता में
बिना वजह भटकता है मन
प्रेम के दो सोपानों में
युग के सांस लेता है मन
जीवन के इन असाध्य
ध्वनियों पर सुर साधता है मन
रे मन
बावला हुआ जीवन रे
मृत्यु की छाँव में बस जा रे
प्रभु की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन रे मन !
© विजय
देह की आतुरता में
ReplyDeleteबिना वजह भटकता है मन
सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति
Nice post, things explained in details. Thank You.
ReplyDeleteBahut Sundar.
ReplyDeleteYou may also like: Information about periwinkle flower & Ashoka tree facts