रूह की मृगतृष्णा में
सन्यासी सा महकता है मन
देह की आतुरता में
बिना वजह भटकता है मन
प्रेम के दो सोपानों में
युग के सांस लेता है मन
जीवन के इन असाध्य
ध्वनियों पर सुर साधता है मन
रे मन
बावला हुआ जीवन रे
मृत्यु की छाँव में बस जा रे
प्रभु की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन रे मन !
© विजय