Thursday, September 23, 2010

लम्हा लम्हा : मीनाकुमारी के नाम ........!!!




दोस्तों , मैं अपनी पिछली पोस्ट फिर से डाल रहा हूँ. वहां पर कमेन्ट बॉक्स का प्रॉब्लम था . 

दोस्तों , मेरे जमाने के कुछ समय पहले के जमाने की एक मशहूर अदाकारा थी , मीनाकुमारी जी . मेरी उनसे पहली मुलाकात ," साहेब , बीबी और गुलाम " फिल्म से हुई , इस फिल्म में देखने के बाद मैं इनकी फिल्मे  खोज खोजकर देखी . 

मीनाकुमारी जितनी बड़ी अदाकारा थी , उतनी ही बड़ी शायरा थी . मुझे उनकी आवाज की कशिश बहुत आकर्षित करती थी , उनकी DIALOGUE DELIVERY भी बहुत PERFECT TIMING के साथ थी .,उनके चेहरे के मासूम  EXPRESSION बहुत बहुत दिनों तक दिल में असर छोड़े रखते थे.  

मीनाकुमारी दर्द से भरी हुई एक इंसान थी . वो ON-SCREEN जितना दर्द दिखा  पाती थी , उससे ज्यादा दर्द उनके भीतर समाया हुआ था , जो की उनकी शायरी के जरिये बाहर आता था , उन्होंने बहुत दर्द भरी  नज्मे लिखी , और फिर अपनी वसीयत में गुलज़ार जी को अपनी सारी शायरियो ,गजलो, और नज्मो की वारिस बना गयी. 

गुलज़ार जी ने , उन सबको एक किताब की शक्ल में ढाल  कर हम सबको ,मीनाकुमारी के दुसरे चेहरे से रु-बू-रु करवाया . मैं अक्सर वो किताब पढ़कर आहे भरता था ,की क्या लिखती थी वो महान शायरा और अदाकारा. 

मैंने 1989 में एक रचना लिखी ,जो उनको पढ़कर ही लिखी थी .. उन्ही की स्टाइल में . ये मैंने ग़ज़ल फॉर्मेट में लिखने की कोशिश की थी , ग़ज़ल तो मुझे लिखना  नहीं आता , बस गीत समझ लीजिये , नज़्म समझ लीजिये , और पढ़ लीजिये .  

मैंने इस रचना के साथ DELHI के मनु "बे-तक्ख्ल्लुस" की बनायीं हुइ मीनाकुमारी की एक पेंटिंग भी दे रहा हूँ , जो मुझे बहुत पसंद है 

तो बस , रचना को पढ़िए, पेंटिंग देखिये , और बाद में YOU TUBE  में उनका गाना सुन लीजिये , वैसे मेरा ALL TIME FAVORITE है , चलते चलते ..यूँ ही कोई मिल गया था ....




लम्हा लम्हा

अपने आप को , फिर ढूंढ रहा हूँ मैं लम्हा लम्हा ;
ज़िन्दगी भी मैंने जिया ; उतरते चढ़ते लम्हा लम्हा !

जब थककर सोचने बैठा ,कि क्या है ज़िन्दगी ,
तो पाया मैंने , ज़िन्दगी को गुजरते लम्हा लम्हा

जब मौत ने पुछा , क्यों आ गए ,मुझ तक यूँ..
मैंने कहा ,ज़िन्दगी बीती ;बस यूँ ही लम्हा लम्हा

तुझे देखता ही रह गया , कुछ कह न पाया कभी
इसी कशमकश में जाने कब बीता हर लम्हा लम्हा

जब भी चाहा की जीने की दास्ताँ कैद करूँ
ढूँढा तो पाया वहां है सिर्फ़ सूना लम्हा लम्हा

अक्सर यूँ ही रातों को बैठकर सोचता हूँ
की टूटे  हुए सपनो को जमा करूँ लम्हा लम्हा

अश्को को कह दूँ की जरा ठहर जाएँ
की जफा की दास्ताँ याद आए लम्हा लम्हा

दिल की दस्तक को कोई कब तक थामे
की मौत आती जाए करीब लम्हा लम्हा



Sunday, September 5, 2010

स्त्री – एक अपरिचिता


 

 

दोस्तों , आज मैंने एक तमिल कवियित्री  सलमा की कविता पढ़ी ..मुझे बहुत पहले पढ़ी हुई एक किताब याद गयी . The second sex by Simone De Beauvoir.... फिर मैंने आज ये कविता लिखी . स्त्रीयों को underdeveloped और developing  देशो में जिस तरह की ज़िन्दगी हासिल होती है ..वो ज्यादातर सिर्फ उनके शरीर पर ही केंद्रित होता है .. मैंने इस कविता को लिखते समय इसी पक्ष को रखने कि कोशिश की है .... बस ,हमेशा की तरह आपका आशीर्वाद चाहिए .....

 



स्त्री – एक अपरिचिता





मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से , “ आज नया क्या है ? ”

कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से ,तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही ..
ताकि , मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू ..
ताकि , मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू ,
ताकि , मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू .

तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर बन सका ,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे सम्भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमे , सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है ..
मैं नहीं ..
क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना .

एक स्त्री का मन , क्या होता है ,
तुम जान सके ..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ सके

मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है ,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है  ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है ,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है ,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है ,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है ..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध ,
हमारी मित्रता का , वो तो तुम भूल ही गए ..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही ...
क्योंकि तुम्हारा सम्भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है ..
और  अक्सर चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ ..
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो ,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो ..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है .

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे ,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी ,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे ,

लेकिन तुम तब भी मेरे साथ सम्भोग करोंगे ,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ

मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री ....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेछित रही
जो तुम्हारे लिए अबला रही ...

पर हाँ , तुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी ..मैं तुम्हारी ही रही ....
एक स्त्री जो हूँ.....







एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...