Friday, January 13, 2017

आज माँ की बरसी पर तीन कविताएं :











"माँ का बेटा"



वो जो अपनी माँ का एक बेटा था
वो आज बहुत उदास है !
बहुत बरस बीते ,
उसकी माँ कहीं खो गयी थी .....

उसकी माँ उसे नहलाती ,
खाना खिलाती , स्कूल भेजती
और फिर स्कूल से आने के बाद ,
उसे अपनी गोद में बिठा कर खाना खिलाती
अपनी मीठी सी आवाज़ में लोरियां सुनाती ..
और उसे सुलाती , दुनिया की नज़रों से बचाकर ....रखती !!!

उस बेटे को कभी कुछ माँगना न पड़ा ,
सब कुछ माँ ही तो थी ,उसके लिए ,
हमेशा के लिए... उसकी दुनिया बस उसकी माँ ही तो थी
अपनी माँ से ही सीखा उसने
सच बोलना , और हँसना
क्योंकि ,माँ तो उसके आंसुओ को
कभी आने ही नहीं देती थी
माँ से ही सीखा ,नम्रता क्या होती है
और मीठे बोल कैसे बोले जातें है
माँ से ही सीखा ,
कि हमेशा सबको क्षमा किया जाए
और सबसे प्यार किया जाए
वो जो अपनी माँ का एक बेटा था
वो आज बहुत उदास है !!

बहुत बरस बीते ,
उसकी माँ खो गयी थी ..
बहुत बरस हुए , उसकी माँ वहां चली गयी थी ,
जहाँ से कोई वापस नहीं लौटता ,
शायद ईश्वर को भी अच्छे इंसानों की जरुरत होती है !
वो जो बच्चा था ,वो अब एक
मशीनी मानव बना हुआ है ...
कई बार रोता है तेरे लिए
तेरी गोद के लिए ...

आज मैं अकेला हूँ माँ,
और बहुत उदास भी
मुझे तेरे बिन कुछ अच्छा नहीं लगता है
यहाँ कोई नहीं ,जो मुझे ; तुझ जैसा संभाले
तुम क्या खो गयी ,
मैं दुनिया के जंगल में खो गया !

आज ,मुझे तेरी बहुत याद आ रही है माँ !!!




"माँ / तलाश"



माँ को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा;
वो हमेशा ही मेरे पास थी और है अब भी .. !
लेकिन अपने गाँव/छोटे शहर की गलियों में ,
मैं अक्सर छुप जाया करता था ;
और माँ ही हमेशा मुझे ढूंढती थी ..!
और मैं छुपता भी इसलिए था कि वो मुझे ढूंढें !!
....और फिर मैं माँ से चिपक जाता था ..!!!
अहिस्ता अहिस्ता इस तलाश की सच्ची आँख-मिचोली ,
किसी और झूठी तलाश में भटक गयी ,
मैं माँ की गोद से दूर होते गया ...!
और फिर एक दिन माँ का हाथ छोड़कर ;
मैं ;
इस शहर की भटकन भरी गलियों में खो गया ... !!
मुझे माँ के हाथ हमेशा ही याद आते रहे .....!!
वो माँ के थके हुए हाथ ,
मेरे लिए रोटी बनाते हाथ ,
मुझे रातो को थपकी देकर सुलाते हाथ ,
मेरे आंसू पोछ्ते हुए हाथ ,
मेरा सामान बांधते हुए हाथ ,
मेरी जेब में कुछ रुपये रखते हुए हाथ ,
मुझे संभालते हुए हाथ ,
मुझे बस पर चढाते हुए हाथ ,
मुझे ख़त लिखते हुए हाथ ,
बुढापे की लाठी को कांपते हुए थामते हुए हाथ ,
मेरा इन्तजार करते करते सूख चुकी आँखों पर रखे हुए हाथ ...!
फिर एक दिन हमेशा के हवा में खो जाते हुए हाथ !!!
आज सिर्फ माँ की याद रह गयी है , उसके हाथ नहीं !!!!!!!!!!!
न जाने ;
मैं किसकी तलाश में इस शहर आया था .............







"माँ"



आज गाँव से एक तार आया है !
लिखा है कि ,
माँ गुजर गई........!!

इन तीन शब्दों ने मेरे अंधे कदमो की ,
दौड़ को रोक लिया है !

और मैं इस बड़े से शहर में
अपने छोटे से घर की
खिड़की से बाहर झाँक रहा हूँ
और सोच रहा हूँ ...
मैंने अपनी ही दुनिया में जिलावतन हो गया हूँ ....!!!

ये वही कदमो की दौड़ थी ,
जिन्होंने मेरे गाँव को छोड़कर
शहर की भीड़ में खो जाने की शुरुवात की ...

बड़े बरसो की बात है ..
माँ ने बहुत रोका था ..
कहा था मत जईयो शहर मा
मैं कैसे रहूंगी तेरे बिना ..
पर मैं नही माना ..
रात को चुल्हे से रोटी उतार कर माँ
अपने आँसुओं की बूंदों से बचाकर
मुझे देती जाती थी ,
और रोती जाती थी.....

मुझे याद नही कि
किसी और ने मुझे
मेरी माँ जैसा खाना खिलाया हो...

मैं गाँव छोड़कर यहाँ आ गया
किसी पराई दुनिया में खो गया.
कौन अपना , कौन पराया
किसी को जान न पाया .

माँ की चिट्ठियाँ आती रही
मैं अपनी दुनिया में गहरे डूबता ही रहा..

मुझे इस दौड़ में
कभी भी , मुझे मेरे इस शहर में ...
न तो मेरे गाँव की नहर मिली
न तो कोई मेरे इंतज़ार में रोता मिला
न किसी ने माँ की तरह कभी खाना खिलाया
न किसी को कभी मेरी कोई परवाह नही हुई.....

शहर की भीड़ में , अक्सर मैं अपने आप को ही ढूंढता हूँ
किसी अपने की तस्वीर की झलक ढूंढता हूँ
और रातों को , जब हर किसी की तलाश ख़तम होती है
तो अपनी माँ के लिए जार जार रोता हूँ ....

अक्सर जब रातों को अकेला सोता था
तब माँ की गोद याद आती थी ..
मेरे आंसू मुझसे कहते थे कि
वापस चल अपने गाँव में
अपनी मां कि गोद में ...

पर मैं अपने अंधे क़दमों की दौड़
को न रोक पाया ...

आज , मैं तनहा हो चुका हूँ
पूरी तरह से..
कोई नही , अब मुझे
कोई चिट्टी लिखने वाला
कोई नही , अब मुझे
प्यार से बुलाने वाला
कोई नही , अब मुझे
अपने हाथों से खाना खिलाने वाला..

मेरी मां क्या मर गई...
मुझे लगा मेरा पूरा गाँव मर गया....
मेरा हर कोई मर गया ..
मैं ही मर गया .....

इतनी बड़ी दुनिया में ; मैं जिलावतन हो गया !!!!!

Saturday, January 7, 2017

रे मन




रूह की मृगतृष्णा में
सन्यासी सा महकता है मन

देह की आतुरता में
बिना वजह भटकता है मन

प्रेम के दो सोपानों में
युग के सांस लेता है मन

जीवन के इन असाध्य
ध्वनियों पर सुर साधता है मन

रे मन
बावला हुआ जीवन रे
मृत्यु की छाँव में बस जा रे
प्रभु की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन रे मन  !


विजय 

Monday, January 2, 2017

सोचता हूँ...................



सोचता हूँ
कि
कविता  में शब्दों
की जगह
तुम्हें भर दूँ ;

अपने मन की भावों के संग

फिर मैं हो जाऊँगा
पूर्ण

विजय


एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...