Wednesday, April 2, 2014

प्रेम


हमें सांझा करना था 
धरती, आकाश, नदी 
और बांटना था प्यार 
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे ! 
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !

धरती के साथ तन बांटा 
नदी के साथ मन बांटा 
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !

और एक बात की हमने जो 
दोहराई जा रही थी सदियों से !

हमने देवताओ के सामने 
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी 
और कहा उनसे कि वो आशीष दे 
हमारे प्रेम को 
ताकि प्रेम रहे  सदा  जीवित !

ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह 
और 
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !

और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !

पर हम ये न जानते थे कि 
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए 
धरती आकाश और नदी पीछे , 
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !

मन का तन से , तन का मन से 
और दोनों का आत्मा से 
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से 
अलगाव हुआ !

प्रेम जीवित ही था 
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !

मैं सोचता हूँ, 
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को 
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !

मैं ये भी सोचता हूँ की 
देवता सच में होते है कहीं ? 

हाँ , प्रेम अब भी है जीवित 
अतीत में और सपनो में ! 

और अब कहीं भी;
तुम और मैं 
साथ नहीं है !

हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित 
किन्ही दुसरे स्त्री –पुरुष में !  

कविता © विजय कुमार 

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...