Saturday, August 22, 2015

यूँ ही ...

यूँ ही ...

ज़िन्दगी भर कुछ साए साथ साथ ही चलते है
और उन्ही सायो की याद में ये ख़ाक ज़िन्दगी;
.......कभी कभी गुलज़ार भी होती है !!!

सोचता हूँ अक्सर यूँ ही रातो को उठकर ...
अगर अम्मा न होती ,
अगर पिताजी न होते .
अगर तुम न होती ..
अगर वो दोस्त न होता ...
...चंद तकलीफ देने वाले रिश्तेदार न होते ...
...चंद प्यार करने वाले दुनियादार न होते ..

तो फिर जीना ही क्या होता !
यूँ ही ज़िन्दगी के पागलपन में लिखे गए अलफ़ाज़ भी न होते !

copyright © विजय कुमार

Monday, August 17, 2015

अम्मा.

......मैंने पहले बोलना सीखा ...अम्मा... !

फिर लिखना सीखा.... क ख ग a b c 1 2 3 ...
फिर शब्द बुने !
फिर भाव भरे !

.... मैं अब कविता गुनता हूँ  , कहानी गड़ता हूँ ..
जिन्हें दुनिया पढ़ती है ..खो जाती है .. रोती है ... मुस्कराती है ...हंसती है ..चिल्लाती है ...
.....मुझे इनाम ,सम्मान , पुरस्कार से अनुग्रहित करती है ...!

.....और मैं किसी अँधेरे कोने में बैठकर,
....खुदा के सजदे में झुककर ,
धीमे से बोलता हूँ ...अम्मा !!!

विजय

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...