उन्मादित एकांत के विराट क्षण ;
जब बिना रुके दस्तक देते है ..
आत्मा के निर्मोही द्वार पर ...
तो भीतर बैठा हुआ वह
परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!!
तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही
जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ....!!!
प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो
तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की
मेरा होना और न होना....
सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है....!!!
मन-मंथन की दुःख से भरी हुई
व्यथा से जन्मता है हलाहल ही हमेशा
ऐसा तो नहीं है ...
प्रभु ,अमृत की भी
वर्षा करते है कभी कभी ...
तब प्रतीत होता है ये की
मेरा न होना ही सत्य है ....!!
अनहद की अजेय गूँज से ह्रदय होता है
जब कम्पित और द्रवित ;
तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है
और मेरे होने का अनुभव होता है !!!
अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
मैं ही रथ हूँ ,
मैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ;
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ
प्रभु मेरे ;
किंचित अपने ह्रदय से
आशीर्वाद की एक बूँद मेरे ह्रदय में
प्रवेश करा दे !!!
तुम्हारे ही सहारे ही ;
मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा ...!!!
प्रभु मेरे ,
तुम्हारा ही रूप बनू ;
तुम्हारा ही भाव बनू ;
तुम्हारा ही जीवन बनू ;
तुम्हारा ही नाम बनू ;
जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू
बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है ..
तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..
प्रणाम..
कविता विजय कुमार
Sunday, April 12, 2015
Wednesday, April 8, 2015
प्रेम
हमें सांझा करना था
धरती, आकाश, नदी
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !
धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !
और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !
हमने देवताओ के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे सदा जीवित !
ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !
और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !
पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !
मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !
प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !
मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !
मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?
हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनो में !
और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !
हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्ही दुसरे स्त्री –पुरुष में !
कविता © विजय कुमार
हमें सांझा करना था
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !
धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !
और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !
हमने देवताओ के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे सदा जीवित !
ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !
और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !
पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !
मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !
प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !
मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !
मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?
हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनो में !
और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !
हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्ही दुसरे स्त्री –पुरुष में !
कविता © विजय कुमार
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