हमें सांझा करना था
धरती, आकाश, नदी
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !
धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !
और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !
हमने देवताओ के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे सदा जीवित !
ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !
और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !
पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !
मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !
प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !
मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !
मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?
हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनो में !
और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !
हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्ही दुसरे स्त्री –पुरुष में !
कविता © विजय कुमार
हमें सांझा करना था
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !
धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !
और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !
हमने देवताओ के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे सदा जीवित !
ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !
और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !
पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !
मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !
प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !
मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !
मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?
हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनो में !
और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !
हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्ही दुसरे स्त्री –पुरुष में !
कविता © विजय कुमार
सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....
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