रूह की मृगतृष्णा
में
सन्यासी
सा महकता है मन
देह की आतुरता
में
बिना
वजह भटकता है मन
प्रेम
के दो सोपानों में
युग के सांस
लेता है मन
जीवन के
इन असाध्य
ध्वनियों
पर सुर साधता है मन
रे मन
बावला
हुआ जीवन रे
मृत्यु
की छाँव में बस जा रे
प्रभु
की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन
रे मन !
विजय
सुन्दर।
ReplyDeleteमन के कितने रूप ... कितने बदलाव
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteBahut khub
ReplyDeleteParticipate in blogging contest at http://www.funkaar.in/contest.html.....Winning entries will win Amazon Vouchers....Contest ending soon....
ReplyDeletevery informative post for me as I am always looking for new content that can help me and my knowledge grow better.
ReplyDeleteHey keep posting such good and meaningful articles.
ReplyDelete