Saturday, January 9, 2010
पाप !!!
दोस्तों ,
मैंने ये कविता 1987 में लिखी थी. ये मेरे एक मित्र की आत्मकथा पर लिखी थी ,इसे लिखने में मुझे बहुत मानसिक उलझन भी थी .. क्योंकि इस कविता की पूरी undertone सिर्फ physical relation पर ही based है ...मैंने अब उस मित्र से permission ली है की इसे मैं ब्लॉग में डालू .. ये एक super psycho poem है .. !!! relationship का canvas बहुत बड़ा होता है और physical activity सिफ एक छोटा हिस्सा होता है ..लेकिन मानव मन कितना दुर्बल है , कितना विवश है , इस छोटे से हिस्से के लिए वो पाप करता है [ anything , which is forced ,and done without interest and in which ,no heart is involved ,can be termed as PAAP ] . मैं इस कविता को पहली बार publish कर रहा हूँ .. मेरा ये प्रयास है इस कविता के सहारे हम एक HUMAN ERROR के MAGNITUDE को समझे की; हम कितने ज्यादा tempt हो जाते है और हम कितने ज्यादा इन जैसी भावनाओ के spell में रहते है ....हमेशा की तरह आपके प्यार और आशीर्वाद की तमन्ना है ...चाहे अच्छे हो या खराब , आपके comments मेरे सर आँखों पर !!!!
पाप !!!
जब कहीं तम,
यौवन की नीरवता की विवश विडंबना सहते रहे
जब हाहाकार लिए रजनी ;
किसी शांत और अनेपिक्षित तूफ़ान की प्रतीक्षा करे
जब अन्धकार के विकसित गर्भ में प्रथम सांस लेती है
पाप की उत्तेजित जागृतता !!
क्या तभी जन्म लेती है मेरी सिसकती कविता ?
जब उत्तेजित पाप प्रथम सांस लेकर
अपने जन्म को कोसते रहे ;
जब अपने निश्चित अंतिम उच्छावास पर,
पपित आवेश लज्जित होते रहे ;
जब खामोश सिसकियाँ भरती है पाप की लज्जा
पाकर अपने अंत की निकटता !!
क्या तभी जन्म लेती है मेरी सिसकती कविता ?
जब अपने कायर अंत का आलिंगन करके
पाप; स्वंय की दुष्टता सहे ,
जब स्वंय की प्रतिछाया , स्वंय को ही,
धिक्कारती, परायी और सिमटी सी लगे;
जब अपने पूर्ण गति को हो प्राप्त ,
फिर प्रारम्भ के लिए छटपटाती है दुर्बल मानसिकता !!
क्या तभी जन्म लेती है मेरी सिसकती कविता ?
जब दुर्बल मानसिकता , प्रारम्भ से लिपट कर
स्वंय को फिर पाप के लिए प्रेरित करे ;
जब प्रेरित हो विवेक तथा मानसिकता के द्वन्द्व में ,
विवश विवेक ; स्वंय को दुर्बल करे,
जब घटित होते पाप को सुनकर, देखकर और छूकर
विजय होती है मानस ह्रदय की दुर्बलता !!!
हाँ..शायद ; तभी जन्म लेती है मेरी विवश कविता !!!
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विजय भाई आपकी निरंतरता और हिन्दी कविता के प्रति आपकी निष्ठा एवं समर्पण अद्वितीय है। आपकी इस नई कविता में बिम्ब, भाषा और पंचलाइन सभी उत्तम हैं। एक अच्छी कविता के लिये बधाई।
ReplyDeleteतेजेन्द्र शर्मा
कथा यू.के.
लंदन
हमारा प्यार तो हमेशा ही आपके साथ है..... इतनी सुंदर कविता के लिए बहुत बहुत आभार .....
ReplyDeleteवाह वाह, अति सुंदर ओर भाव लिये इस सुंदर कविता के लिये आप का धन्यवाद
ReplyDeletepratikon aur bimbon ke madhayam se ek bahut hi umda kavita rachi hai..........bahut hi gahan aur suksham drishtikon.
ReplyDeleteVijay ji !
ReplyDeletekavita ki drishti se dekhen toh bahut bahut prashansa karne ko laachaar hoon......kyonki aapne likhi hi itni adbhut hai...
shilp
shabd
tatva
kathya
bimb
bhaasha
soundrya ke saath sath marm bodh dekh kar main abhibhoot hoon kintu bas ek hi taklif hui ki aapne daihik aavshyakta ko paap kah kar use dhikkaar diya
mere khyaal se ye itni buri baat nahin hai jee !
baaki kavita ke liye aapko laakh laakh badhaai !
vijay ji bahut gehre bhaav liye aapki kavita umdaygi ka namoona hai..jin ehsaaso ko aapne shabdo k motiyo me piro ka rachna ka srijan kiya hai vo kaabile tareef hai.
ReplyDeleteआदरणीय अलबेला जी ,
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद् ,आपके दिल से निकले हुए कमेन्ट के लिए !!!
मेरी ये कविता शरीर के सुख के बारे में नहीं है , ये शरीर की वासना के बारे में है ..वासना की अति को मैंने पाप कहा है और कुछ नहीं ..
आपका प्यार यूँ ही मुझ पर बना रहे ..
आपका
विजय
गहन् भावों का संगम!
ReplyDeleteकविता का उदगम।।
बहुत सुन्दर रहा!
कविता के जन्म की प्रसव वेदना को आपने बखूबी समेटा है
ReplyDeleteप्रारम्भ के लिए छटपटाती है दुर्बल मानसिकता !!
क्या तभी जन्म लेती है मेरी सिसकती कविता ?
वाकई कविता के जन्म की प्रक्रिया छटपटाहट से ही तो होकर गुजरती है.
पाप कहते रहोगे
ReplyDeleteतो पाप हो जाएगा
मन स्वच्छ रखोगे
तो विश्वास हो जाएगा
वैसे न तन पाप है
न मन पाप है
पाप और कुछ नहीं
भीतर की आवाज है
आवाज जो बुनी है
जिसने
जो रची है सबने
कसी है विचारों पर
सबके मन पर रची है
उसे धो डालो
सब कुछ बदल डालो।
पाप जिसे कह रहे हो
पुण्य वही हो सकता है
पर मन बदलना चाहिए
विचार संवरना चाहिए।
achchhee rachna.
ReplyDeleteविजय जी की ये कविता मेरे मन के अटल विश्वास की पुष्टि करती है. पाप और पुन्य की बात मै नही करता लेकिन अधिकतर रिश्ते देह मिलन के बाद अपनी गरमी खो देते है. रिश्तो को निभाना है और सम्बन्धो को जीन है तो देह की जगह नेह का आकर्षण मुझे अधिक आकर्षित करता है.
ReplyDeleteविजय जी
ReplyDeleteअब शब्दों के अद्भुत चितेरे हैं। जैसे कविता न लिख कर मन की व्यथाओं को कूची से उकेर रहे हों। चार्ली चैप्लिन ने कहा था, कविता संसार के नाम एक प्रेम पत्र होती है। आपकी ये कविता उदास करने वाला प्रेम पत्र है लेकिन जरूरी प्रेम पत्र बधाई लें
सूरज
विजय भाई,बहुत गहरी बात कह गए आप.पहली बार आपकी कलम से इस तरह की कविता देखने को मिली है.बहुत खूब,बधाई.
ReplyDeleteएक अद्भुत, अद्वितीय, अप्रत्याशित कविता. विषय मन की उद्विग्नता को पूरी तरह निखार कर लाने में सक्षम रहा है.बेमिसाल प्रस्तुती
ReplyDeletesadhuvad vijayji. Atyant hi sundar rachna hai. Aasha hai aap isi tarah se apnee rachnayen hamein uplabdh karatey rahenge.
ReplyDelete"जब घटित होते पाप को सुनकर, देखकर और छूकर
ReplyDeleteविजय होती है मानस ह्रदय की दुर्बलता !!!
हाँ..शायद ; तभी जन्म लेती है मेरी विवश कविता !!!"
कविता के इस समापन ने सोचने पर विवश किया !
दूसरा पहलू भी है अभी ... पर आपने लिखा भी है... "शायद..."!
बेहतरीन कविता ! आभार ।
पाप और विवशता के बीच झूलती रचना ........ मन के भाव की लाजवाब प्रस्तुति है विजय जी आपकी कविता .......
ReplyDeleteविजय भैया इस कविता को पढ़कर मेरे मन में एक साथ कई सवाल उठे। पहले तो एक शिकायत उठी कि भई आपने इतनी हृदयस्पर्शी कविता 23 साल तक हम लोगों से छुपाकर क्यों रखी। फिर यह भी सोचा कि ब्लॉग तो अभी दो साल पहले से ही चल निकला है, तब आपका आभार प्रकट करता हूं कि काव्य कला के इतनी गूढ़ विषय का साक्षात्कार हमें आपके ही माध्यम से हो रहा है। सचमुच यह अद्वितीय है।
ReplyDeleteजब उत्तेजित पाप प्रथम सांस लेकर
ReplyDeleteअपने जन्म को कोसते रहे ;
जब अपने निश्चित अंतिम उच्छावास पर,
पपित आवेश लज्जित होते रहे ;
सच में विजय जी आपकी कविता आज आपने आप में बहुत कुछ लिए हुए है... बस शिकायत इतनी है की इसे क्यों छिपाए रखा आपने अब तक...
मीत
विजय जी पुरानी फिल्म "चित्रलेखा" का एक गीत है जिसे साहिर ने लिखा था...आपने जरूर सुना होगा...उसके दो शेर मुझे आपकी रचना सुन याद आ गए...
ReplyDeleteये पाप हैं क्या, ये पुण्य हैं क्या, रीतोंपर धर्म की मुहरे हैं
हर युग में बदलते धर्मोंको कैसे आदर्श बनाओगे
ये भोग भी एक तपस्या हैं, तुम त्याग के मारे क्या जानो
अपमान रचेता का होगा, रचना को अगर ठुकराओगे
शब्दों की मिठास और भाव की अदायगी बेमिसाल है इस गीत में...सरल शब्द जो सीधे दिल में उतर जाते हैं...मुझे न जाने क्यूँ हमेशा ऐसी ही रचनाएँ पसंद आती हैं जो सीधे दिल में उतरें...माना साहित्य में लालित्य होना चाहिए लेकिन ऐसी रचना किस काम की जो आसानी से समझ ही ना आये...पता ही न चले की कवि कहना क्या चाहता है...ऐसी रचनाएँ पाठ्य पुस्तकों में जगह पा जाती हैं लेकिन लोगों के दिलों में नहीं...निराला, पन्त, दिनकर, महादेवी अपने समय के महान कवि हुए हैं लेकिन कितने लोग हैं जो उनकी रचनाएँ पढ़ते हैं या आपको सुना सकते हैं...बाल्मीकि रामायण अपनी क्लिष्ट भाषा के चलते ही तुलसी दास जी की रामायण जितनी प्रसिद्द नहीं हुई...मुझे उम्मीद है आप मेरी बात का बुरा नहीं मानेंगे...
अब पाप और पुण्य की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है...आपने कहा है की जिस काम में दिल साथ न दे वो पाप है.....चोरी करना समाज की दृष्टि में पाप है लेकिन चोर की दृष्टि में नहीं...हत्या करना समाज की दृष्टि में पाप है लेकिन युद्ध में शत्रु का वध करना वीरता का परिचायक है...क्या फर्क है दोनों में?...झूठ बोलना पाप है लेकिन बिना झूठ बोले आप एक दिन तो रह कर दिखाईये...पाप पुण्य बहुत भ्रामक शब्द हैं जो समाज ने हमें दिए हैं...और समाज ही उन्हें खुले आम तोड़ता है...एक समाज कहता है पशु हत्या पाप है तो दूसरा समाज रोज पशु खाता है जो हत्या किये बिना संभव नहीं...ऐसे हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं...और इस विषय पर लम्बी लम्बी बहस भी हो सकती है...होती भी है और होती रहेगी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलेगा...
आप अच्छा लिखते हैं लेकिन सरल लिखें ताकि हम जैसों की समझ में भी आपकी बात आ जाये...
नीरज
bahut hi sundar kavita... shayad isse accha aur kuch ho hi nahi sakta thaa...
ReplyDeleteभाषा और कथ्य दोनो के स्तर पर यह काफ़ी बेहतर कविता है विजय जी।
ReplyDeleteशुभकामनायें
सुन्दर भाव अभिव्यक्ति,आभार!
ReplyDeleteAapki rachna hamesha ki trha bahut hi achi or dil ko chune vali ha bahut2 badhai...
ReplyDeleteआप एक अजूबा हैं साहब, इतनी गहरी भाषा इतने गहरे ख्याल,
ReplyDeleteहम तो रह जाते हैं अवाक, हतप्रभ, आपके लेखन पे मुस्कुराते...
मैं अब आपकी कविता की तारीफ़ नहीं करूंगी
ReplyDeleteमैं अलबेला जी की इस बात से सहमत हूँ की इसे पाप न कहें
अविनाश जी की पूरी बात बिलकुल सटीक है ,पता नहीं इस पाप से कौन सा मेगा स्टार जन्म ले ले
नीरज जी ने शब्दों को सरल रखने की बात कही है ये आज के दौर में सबसे आवश्यक है ,
आप अपनी भाषा में मुझे बड़ी इज्जत से नमस्कार कह रहे हो और मुझे आपकी भाषा न समझ में आ रही हो तो मैं मुंह बाए बस आपका चेहरा ही तो ताकूंगी
एक चौथी बात जो मुझे कहनी है वह ये है की कविता का विषय अच्छा उठाया आपने
तन है, इसमें जीवन है...तन को ढकने के लिए वसन हैं...और वासना भी. किसे पाएं, किसे छोड़ें, किसे ढूंढ़ें...यही मन की उलझन है और जीवन जीने का जतन और चलन भी है. इन उलझावों से इतर आपकी कविता...सुंदर है भाई. ऐसे ही लिखते रहें.
ReplyDeleteचौराहा
क्या कहूं विजय जी, आपने मुझे सोचने पर विवश कर दिया है कि एक की हिंदी इतनी अच्छी कैसे हो सकती है !!
ReplyDeleteपर मेरे ही मन से आवाज आई कि क्या G.M. आदमी नहीं होता या उसके दिल नहीं होता !!
:)
आप इतने कठिन शब्दों में कैसे लिख पाते हैं, इससे आपकी विद्वत्ता का पता चलता है.
एक चीज़ खटक रही है कि कविता का सन्दर्भ यदि हिंदी में रहा होता तो कुछ और बेहतर होता.
हाँ..शायद ; तभी जन्म ले सकती है विवश कविता !!!
एक अद्भुत सत्य का रहस्योद्घाटन किया है आपने, अपनी इस कविता के माध्यम से.
मैंने ऊपर की कई टिप्पणियाँ पढीं, कई से सहमत पर कुछ से विरोध भी हुआ.
आपकी हर कविता हर बार एक नया रस लेकर आती है. कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि रस तो दस ही होते हैं...
:)
विजय जी, कविता का एक दूसरा भाग भी अभी शेष है जिससे कई लोग सहमत नहीं होंगे पर मैं आपको कहना चाहता हूँ कि इसका अंत यहीं पर नहीं होना चाहिए क्रमशः लगाकर भाग दो की रचना भी कीजिए जिसमें कि व्यक्ति का अपने आत्मबल और नैतिक बल से इन दुर्बलताओं पर विजय का भाव जन्म ले.
तब तो असली VIJAY है अन्यथा एक पराजित सत्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है यह.
कविता अपने-आप में पूर्ण है, पर अंत अधूरा है.
आपकी लेखन शैली भी दोषरहित है पर अंत की पराजय को एक नवीन रचना द्वारा सुखद विजय में बदलें ताकि आपकी कविता में सत्य के साथ-साथ संजीवनी बूटी (जीवनदायिनी) का गुण भी आ सके और हम आपकी कविता के मानव से प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में उन्नति को प्राप्त कर सकें.
यदि कुछ बुरा लिख गया होऊं तो क्षमा-प्रार्थी हूँ.
धन्यवाद.
EK ARSE KE BAAD AAPKE BLOG PAR
ReplyDeleteAAYAA HOON AUR AAPKEE SAHAJ AUR
SUNDAR BHAVABHIVYATI SE BAHUT HEE
PRABHAAVIT HUAA HOON.BADHAAEE AUR
SHUBH KAMNA.
vijayji,
ReplyDeletekavita bahut achhi he, saarthak he, man ki katha-vyatha ko pradarshit karti he.
jnha tak paap aour puny ki baat he to me ise mahaz insaan ka banaya hua ek esa niyam mantaa hu jo maano to thik naa mano to bhi thik, yaani paap kuchh hota he..yaa puny kuch hotaa he, pataa nahi/ hnaa, jo hamari aatmaa mane vo hi sahi hota he, ham jis kaam ko karne par hame khush hote he vahi punya he aour jis kaam me hame dukh hota he yaa ham esa sochate he vo paap. kher..
rachna apna poora aakaar liye he.
nice
ReplyDeletevijay ji aapki is kavita ka sachmuchh jawaab nahi bahut badiya likha hain aapne
ReplyDeleteNihayat khoobsoorat srujan!
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता
ReplyDeletesabne itna kuchh kah diya ki main soch me pad gayi ,itni gahrai me doobi hui is rachna ke liye shabd nahi ,man ki uthal -puthal ko bakhoobi byan kiya hai aapne ,laazwaab rahi rachna ,behad pasand aai .adivtiya aur adbhut .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता
ReplyDeleteविजय जी,
ReplyDeleteगुणीजनों ने इतना कुछ पहले ही कह दिया है कि अब शब्द ही नहीं बचे. इस सशक्त रचना के लिये बधाई
गहन दार्शनिक भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteबहुत जटिल विषय लिया है आपने इस रचना का.....
ReplyDeleteजहाँ विषय - वासना है वहाँ पाप है और
जहाँ प्रेम प्रवाह है वहाँ निर्मल धार है...
सुन्दर रचना...बधाई
आपकी लेखनी और आपके पाठक/समीक्षक,
ReplyDeleteदोनों के लिये मैं ईर्श्यालु हो रहा हूँ....
कहीं यह पाप तो नहीं!
है तो होता रहे,
वश कहाँ है अपना?
भई वाह!
विजय जी..
ReplyDeleteशाउअद ज्यादा मुश्किल है मेरे लिए समझना...
पर जो नीरज जी ने चित्रलेखा की दो लाइन बतायी हैं...उन्ही के आधार पर ..उनसे सहमत हूँ..
शब्दों का अद्भुत शिल्प।
ReplyDeleteबधाई।
विजय सबसे पहले तो देरी से आने के लिए माफी जी। मैं ज्यादा कुछ ना कहकर बस इतना कहूँगा कि ये कविता इतनी अच्छी है कि ये आपकी बेहतरीन कविताओं में अपना एक अलग ही स्थान रखती है। सच में आपने बहुत बेहतरीन लिखा है। हर शब्द अपनी पूरी कहानी कह रहा है। और आपकी ये कविता पूरी तरह से कसी हुई है। वैसे पाप और पुण्य क्या होते है? ज्यादा नही जानता। वैसे अमिताभ जी ने सही कहा।
ReplyDeleteगहरे भाव से युक्त कविता है... शब्द शिल्प भी खूब है.
ReplyDeleteपढ़कर कुछ लिखना चाह रहा हूँ.
धन्यवाद!
अच्छी कविता
ReplyDelete