दोस्तों ; ज़िन्दगी की राह में कुछ ऐसे पल आते है ,जब सबकुछ छोड़कर कहीं चले जाने का मन करता है , मन बुरी तरह व्यथित होता है और फिर मन -मंथन के एक निरर्थक प्रयास में से कुछ सार्थक सा जन्म लेता है ... बीते दिनों कुछ ऐसा ही मन-मंथन से मैं गुजरा और फिर .....अमृत की तरह मेरी ये कविता आपके सामने प्रस्तुत है ... आप सब का जीवन शुभमंगलमय हो ..यही उस ईश्वर से कामना है , और मेरी मन से प्रार्थना है ...!!! अस्तु !!!!
मेरा होना और न होना ....
उन्मादित एकांत के विराट क्षण ;
जब बिना रुके दस्तक देते है ..
आत्मा के निर्मोही द्वार पर ...
तो भीतर बैठा हुआ वह
परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!!
तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही
जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ....!!!
प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो
तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की
मेरा होना और न होना....
सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है....!!!
मन-मंथन की दुःख से भरी हुई
व्यथा से जन्मता है हलाहल ही हमेशा
ऐसा तो नहीं है ...
प्रभु ,अमृत की भी
वर्षा करते है कभी कभी ...
तब प्रतीत होता है ये की
मेरा न होना ही सत्य है ....!!
अनहद की अजेय गूँज से ह्रदय होता है
जब कम्पित और द्रवित ;
तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है
और मेरे होने का अनुभव होता है !!!
अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
मैं ही रथ हूँ ,
मैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ;
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ
प्रभु मेरे ;
किंचित अपने ह्रदय से
आशीर्वाद की एक बूँद मेरे ह्रदय में
प्रवेश करा दे !!!
तुम्हारे ही सहारे ही ;
मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा ...!!!
प्रभु मेरे ,
तुम्हारा ही रूप बनू ;
तुम्हारा ही भाव बनू ;
तुम्हारा ही जीवन बनू ;
तुम्हारा ही नाम बनू ;
जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू
बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है ..
तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..
तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा ..
दर्शन से सराबोर कविता है। अच्छी लगी।परमात्मा जीवऔर माया -तीनों ही सत्य है और हमेशा रहेगे।
ReplyDeleteतीनों एक दूसरे के पूरक होते है बस हमें खुद को पहचानने की जरूरत है। हम अपने अंशी से जुदा कहां हुए।हम एक ही है।बस उसे महसूस करने की जरूरत है। तब लगता है हम अकेले नहीं है।
ye vishwaas ki ham prabhu ke hee ansh hain. to porntaa me prabhu aur ansho me ham jo kuchh hai sab iske hee ird gird hai
ReplyDeleteso aapne beech ke sab logo ko kinaare lagaa diyaa hai
direct delivery god to your self
"प्रभु मेरे , तुम्हारा ही रूप बनू ;तुम्हारा ही भाव बनू ;तुम्हारा ही जीवन बनू ;तुम्हारा ही नाम बनू ;जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है .."
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता ! आपका एक नया ही रूप दिखा !
खूबसूरत !
प्रणाम,
ReplyDeleteबहुत गहरे उतर गए कविवर. दर्शन और अध्यात्म से सरोबार रचना.
आपकी लेखनी संभवतः पहली बार इतनी आत्मलीन हुई है.
बधाई.
बहुत सुंदर शंब्दों के साथ भावपूर्ण रचना.....
ReplyDeleteहैट्स ऑफ टू यू....
om sai ram
ReplyDeleteatyant hi khubsurat rachna ,
prabhu bin hum adhure he aur hamare bin prabhu .
http://bejubankalam.blogspot.com/
bhai kya kahne
ReplyDeletekya kahne apki kavya shaili aur shabdvinyas ke
jiyo jiyo vijay ji meri haardik mangal kaamnaayen aapke liye aur saadhuvaad is anupam rachna ke liye..
jai ho aapki !
अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
ReplyDeleteमैं ही रथ हूँ ,मैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ
सही है,जीवन के रथ पर तो हम ही अर्जुन, कृष्ण और स्वयं रथ भी हैं. सुन्दर कविता. आभार.
अच्छी कविता
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteदर्शन नहीं यथार्थ है
"प्रभु मेरे , तुम्हारा ही रूप बनू ;तुम्हारा ही भाव बनू ;तुम्हारा ही जीवन बनू ;तुम्हारा ही नाम बनू ;जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है .."
ReplyDeleteसत्य यही है विजय जी.
इसी लिए हमेँ दुखों और विपत्तियों से कभी भी घबराना नहीं चाहिये. असली अमृत तो उसी के बाद मिलता है.
एक गीत याद पड़ रहा है-
ऐ जिंदगी गले लगा ले.
हमने भी तेरे हर इक गम को,
गले से लगाया है, है ना !!
बहुत सुन्दर और उम्दा कविता लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है!
ReplyDeleteबहुत सुंदर... भावपूर्ण कविता
ReplyDeleteयथार्थ की कड़ी धरती पर उगते अंकुर की तरह पावन रचना है ये आपकी....लेकिन... ये आप की सर्वश्रेष्ठ नहीं रचना नहीं है....क्यूँ की सर्वश्रेष्ठ तो अभी लिखनी बाकि है... अगर इसे आप सर्वश्रेष्ठ मान लेंगे तो अगली रचनाएँ कैसे रचित कर पाएंगे...लिखते रहिये....बिना ये कहे की के ये आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है...ये कहने का अधिकार तो असल में पाठक का है...
ReplyDeleteनीरज
bahut hi sundar rachnaa hain
ReplyDeleteaapka hona hamre liye mahtvapurn hain .......
धरा के विषाद और वैराग्य से ही जन्मता है समाधि का सूत्र
ReplyDeleteवाकई पहली बार सही विश्लेषण किया है आपने
ये विषाद और वैराग्य ही मोह ख़त्म करता है ,जब मोह ख़त्म होता है तब ही प्रभु मिलते हैं
लेकिन अंतिम पैरे में फिर भटक रहे हैं आप
आप तो ईश्वर ही हैं ,फिर ईश्वर बनने की चाह क्यों
रश्मिरथी का वह अनुच्छेद पढ़िए ----
यह देख गगन मुझमें लय है ,यह देख पवन मुझमें लय है.............
मुझे तो पूरी याद है पर लम्बी है नहीं तो लिख देती
द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाती कविता है। सुंदर है। लेकिन आप के ब्लाग की सजावट बहुत ही असुंदर है। काले रंग की पृष्ठभूमि पर रंगीन अक्षर पढ़ने पर पाठक पर की आँखों पर बहुत तनाव छोड़ते हैं। सफेद या हलके रंग की पृष्ठभूमि पर काले या गहरे रंग के अक्षर सदा ही सहूलियत भरे होते हैं। आशा है सजावट को दुरुस्त करेंगे।
ReplyDeleteआपकी कविता ने याद दिला दिया सूफ़ी कलाम कि:
ReplyDeleteइसी तलाश-ओ-तजस्सुस में खो गया हूँ मैं,
जो मैं नहीं हूँ तो क्यूँ हूँ, जो हूँ तो क्या हूँ मैं।
आनन्द आ गया आपकी कविता पढ़कर।
आपकी कविता पढ़कर जन्मी एक तात्कालिक कविता आपको सादर भेंट किये बिना रुक नहीं पा रहा हूँ।
मैं नहीं जानता,
लोग कहते हैं,
यह सृष्टि ब्रह्मस्वप्न है।
लोग कहते हैं,
यह सृष्टि भ्रम है।
तो क्या ब्रह्मस्वप्न भी भ्रम हो सकता है?
अजीब प्रश्न है,
सबके अपने उत्तर,
सबकी अपनी व्याख्या,
और दूर तपती दोपहर में,
एक तरुवर की छाया तलाश
वह कुछ पानी के घड़े रखे,
तन्मयता से पानी पिला रहा है,
हर आते जाते प्यासे को।
उसे नहीं मालूम
ज्ञान की प्यास की क्या होती है।
उसके लिये तो पानी पिलाना
उसकी रोजी रोटी है।
सुन्दर सात्विक चिंतन....
ReplyDeleteईश्वर आपपर सदैव अपनी कृपादृष्टि बनाये रखें और सार्थक सुन्दर रचवाते रहें....
मेरा होना और न होना....
ReplyDeleteसिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है....
शून्य से शुरू हो कर शून्य पर ही समाप्त होती जीवन की डोर .... इंसान तो मात्र मोहरा है प्रभू के हाथोंमें ..... बहुत ही पावस .. सागर सी शांत ... रचना ..
प्रभु मेरे ,
ReplyDeleteतुम्हारा ही रूप बनू ;
तुम्हारा ही भाव बनू ;
तुम्हारा ही जीवन बनू ;
तुम्हारा ही नाम बनू ;
बहुत ही अर्थपूर्ण कविता है. आपने श्रीमद भगवद गीता को बहुत अच्छी तरह से सम्माहित किया है. ईश्वर ही सत्य है. हम् सत्य को पा लेंगे तो ईश्वर भी हमें मिल जाएगा और उसका आशीर्वाद भी. परमपिता परमेश्वर का आशीर्वाद सदा आपके साथ रहे यही प्रार्थना है, यह कविता जीवन के सत्य को समझाने में पूर्णतया सफल रही है.
अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ;
ReplyDeleteमैं ही रथ हूँ ,
मैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ
अपार , असीम , अनंत
उस परमपिता परमेश्वर के पावन आशीर्वाद से उतरे
ये कुछ शब्द.... मात्र शब्द नहीं हैं
एक उजाला है....एक दर्शन है.....एक आनंद है
जो हमेशा हमेशा इंसान के भीतर ही बसा रहता है
उस भव्यता को महसूस करने के लिए
कुछ ऐसे ही वियोगी क्षणों से गुज़रना होता है
आपकी उपासना , आराधना, अर्चना
आपके ऐसे ही पलों का प्रतिफल है
और यही प्रतिफल ...आपकी ये कविता है
भव्या कविता
दिव्या कविता
मैं ही रथ हूँ ,
ReplyDeleteमैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
बहुत ही सुन्दर भाव हैं...आत्मा और परमात्मा का जुड़ा़व बहुत ही खूबसूरती के साथ रचना मे पिरोया है.यह कविता आध्यात्मिक स्तर पर ले जाती है.आपको बहुत-बहुत बधाई!
Sahi kah rahe hain ......waqayi man oob jata hai
ReplyDeleteaapne man ko bahut sakun mila ye sab padh kar
bahut sundar vijay bhai
ReplyDelete"प्रभु मेरे, तुम्हारा ही रूप बनू; बहुत खूबसूरत रचना है एकदम सात्विक और दार्शनिक.. फिर आपकी तारीफ़ करना तो सूरज को दिया दिखाने के समान है।
ReplyDeleterecd by email from Shri vijay ...
ReplyDeletethis is a true reflection of life in different shades ..
मैं ही रथ हूँ ,
ReplyDeleteमैं ही अर्जुन हूँ ,
और मैं ही कृष्ण .....!!
जीवन के महासंग्राम में ;
मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ
मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ
मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा ..
मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ ,
rightly said.jeevan ki paridhi mein maut bhi aik rekha si uske peeche-piche chalti hai.aik samay aata hai jab aadmi hone aur na hone ke anter ko samajhane lagata hai.Yatharthko sahejati jeevan darshan se ot-prot rachna ke liye dhanyawad.
bahut khoob ji...
ReplyDeletegreat... ati sundar
बहूत सूंदर, बेहद भावपूर्ण
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना है।बधाई।
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता के लिए आभार
ReplyDeleteकिसी का शेर है:
मैँ न होता तो किसी नाम से ज़िन्दा रहता
ग़म तो ये है मेरे होने ने मिटाया है मुझे
मुझे तो आपने हमेशा की तरह एक बार फिर निःशब्द कर दिया है। इतनी सूफी सोच-समझ आज के दौर में शायद ही किसी को होगी। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि केंद्र सरकार के संवेदनशील लोगों के हाथों में आपकी कविताएं आ गयीं, तो आपकी एक एक कविता को एनसीईआरटी (NCERT) के सिलेबस में चलाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
ReplyDeleteRECD BY EMAIL FROM MS. SHILPA.....
ReplyDeleteBhai Shri vijayji,
Namaste,
'' Raham Nazar karo ab more sai,
Tum bin nahi mujhe maa baap bhai ''.
Shayad zindgi ek mukam pe aakar har kisi ko darshnik bana deti hai,aur
vaise bhi the stark reality of life is this only.Magar janab abhi se
is disha main mudna hai ya nahi ye har kisi ka apna apna nazariya hai.
Jahan tak kavita ka saval hai achi darshnik rachna hai.Likhte
rahe.Meri taraf se dher saari shubhkamnaye.
Regards,
Shilpa
RECD. BY EMAIL FROM DR.ANITA.....
ReplyDeleteविजय कुमारजी ,
नमस्ते ,
आपकी दार्शनिक कविता पढ़ी और बहोत ही अच्छा लगा की आज के इस भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति में आप दार्शनिक कविता लिख रहे हैं. आपके इस अथक प्रयास के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई.
साधुवाद,
डॉ.अनिता ठक्कर
:)
ReplyDeleteबहुत सुंदर...
ReplyDeleteबहुत प्यारी रचना ||
बहुत खूब !!
आत्मा और परमात्मा के एकाकार होने की कामना है यह.
ReplyDeleteतब धरा के विषाद और वैराग्य से ही
ReplyDeleteजन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ....!!!
आदरणीय ,समाधी तो परमानंद की अवस्था है ,विषाद से कैसे घट सकती है ? ये मेरा व्यक्तिगत विचार है .
कविता हमेशा की तरह बहुत अछि है बस यही बात
खटकी सो कह दी .
बहुत सुन्दर !
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