Sunday, September 5, 2010

स्त्री – एक अपरिचिता


 

 

दोस्तों , आज मैंने एक तमिल कवियित्री  सलमा की कविता पढ़ी ..मुझे बहुत पहले पढ़ी हुई एक किताब याद गयी . The second sex by Simone De Beauvoir.... फिर मैंने आज ये कविता लिखी . स्त्रीयों को underdeveloped और developing  देशो में जिस तरह की ज़िन्दगी हासिल होती है ..वो ज्यादातर सिर्फ उनके शरीर पर ही केंद्रित होता है .. मैंने इस कविता को लिखते समय इसी पक्ष को रखने कि कोशिश की है .... बस ,हमेशा की तरह आपका आशीर्वाद चाहिए .....

 



स्त्री – एक अपरिचिता





मैं हर रात ;
तुम्हारे कमरे में आने से पहले सिहरती हूँ
कि तुम्हारा वही डरावना प्रश्न ;
मुझे अपनी सम्पूर्ण दुष्टता से निहारेंगा
और पूछेंगा मेरे शरीर से , “ आज नया क्या है ? ”

कई युगों से पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग्या ही रही
मैं जन्मो से ,तुम्हारे लिए सिर्फ शरीर ही बनी रही ..
ताकि , मैं तुम्हारे घर के काम कर सकू ..
ताकि , मैं तुम्हारे बच्चो को जन्म दे सकू ,
ताकि , मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे घर को संभाल सकू .

तुम्हारा घर जो कभी मेरा घर बन सका ,
और तुम्हारा कमरा भी ;
जो सिर्फ तुम्हारे सम्भोग की अनुभूति के लिए रह गया है
जिसमे , सिर्फ मेरा शरीर ही शामिल होता है ..
मैं नहीं ..
क्योंकि ;
सिर्फ तन को ही जाना है तुमने ;
आज तक मेरे मन को नहीं जाना .

एक स्त्री का मन , क्या होता है ,
तुम जान सके ..
शरीर की अनुभूतियो से आगे बढ़ सके

मन में होती है एक स्त्री..
जो कभी कभी तुम्हारी माँ भी बनती है ,
जब वो तुम्हारी रोगी काया की देखभाल करती है  ..
जो कभी कभी तुम्हारी बहन भी बनती है ,
जब वो तुम्हारे कपडे और बर्तन धोती है
जो कभी कभी तुम्हारी बेटी भी बनती है ,
जब वो तुम्हे प्रेम से खाना परोसती है
और तुम्हारी प्रेमिका भी तो बनती है ,
जब तुम्हारे बारे में वो बिना किसी स्वार्थ के सोचती है ..
और वो सबसे प्यारा सा संबन्ध ,
हमारी मित्रता का , वो तो तुम भूल ही गए ..

तुम याद रख सके तो सिर्फ एक पत्नी का रूप
और वो भी सिर्फ शरीर के द्वारा ही ...
क्योंकि तुम्हारा सम्भोग तन के आगे
किसी और रूप को जान ही नहीं पाता  है ..
और  अक्सर चाहते हुए भी मैं तुम्हे
अपना शरीर एक पत्नी के रूप में समर्पित करती हूँ ..
लेकिन तुम सिर्फ भोगने के सुख को ढूंढते हो ,
और मुझसे एक दासी के रूप में समर्पण चाहते हो ..
और तब ही मेरे शरीर का वो पत्नी रूप भी मर जाता है .

जीवन की अंतिम गलियों में जब तुम मेरे साथ रहोंगे ,
तब भी मैं अपने भीतर की स्त्री के
सारे रूपों को तुम्हे समर्पित करुँगी
तब तुम्हे उन सारे रूपों की ज्यादा जरुरत होंगी ,
क्योंकि तुम मेरे तन को भोगने में असमर्थ होंगे
क्योंकि तुम तब तक मेरे सारे रूपों को
अपनी इच्छाओ की अग्नि में स्वाहा करके
मुझे सिर्फ एक दासी का ही रूप बना चुके होंगे ,

लेकिन तुम तब भी मेरे साथ सम्भोग करोंगे ,
मेरी इच्छाओ के साथ..
मेरी आस्थाओं के साथ..
मेरे सपनो के साथ..
मेरे जीवन की अंतिम साँसों के साथ

मैं एक स्त्री ही बनकर जी सकी
और स्त्री ही बनकर मर जाउंगी
एक स्त्री ....
जो तुम्हारे लिए अपरिचित रही
जो तुम्हारे लिए उपेछित रही
जो तुम्हारे लिए अबला रही ...

पर हाँ , तुम मुझे भले कभी जान न सके
फिर भी ..मैं तुम्हारी ही रही ....
एक स्त्री जो हूँ.....







64 comments:

  1. विजय जी,
    स्त्री के चरित्र को जिस तरह आपने उजागर किया है वो न केवल प्रशंसनीय है बल्कि ऐसा लगता है जैसे किसी स्त्री द्वारा ही उस पीडा का दर्शन कराया गया हो…………………………एक गज़ब का चित्रण्………………हर पुरुष को सोचने को मजबूर करेगा।

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  2. दोस्तों
    इस कविता की शुरुवात में जो चित्र लगा है , उसे कावेरी ने बनाया है ..आप सबके आशीर्वाद और प्रेम भरे कमेंट्स का इन्तजार रहेंगा ..

    आपका
    विजय

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  3. Arthhpoorn chitr aur dilko kachotne wala sach...

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  4. कावेरी जी के चित्र ने आपकी कविता मे जान डाल दी है……………बेहद खूबसूरती से भावों को उजागर किया है। उन्हे बधाई दिजियेगा।

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  5. vijay bhayi ort ki zindgi ki schchaayi aapne khub byaan ki uska mrm vaaqyi bhut khub byaan kiya he sch bhi yhi he. akhtr khan akela kota rajsthan

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  6. चित्र के लिए कावेरी जी को बधाई जो आपकी पोस्ट को चार चाँद लगा रही है और पोस्ट स्त्री मन की व्यथा बखूबी व्यक्त कर रही है

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  7. नारी की अंतर्वेदना का इतना बारीक़ चित्रण किया है आपने कि करुणा और संवेदना के सागर उमड़ पड़े हैं - निसन्देह अद्भुत कविता है, मैं आपसे सहमत हूँ विजयजी ! कि ये भी होता है परन्तु मैं ये मानने को तैयार नहीं कि सिर्फ़ ऐसा ही होता है .....सो भाईजी, नारी की वेदना से इंकार नहीं है लेकिन पुरूष केवल और केवल भोगी है ऐसा मान लेना भी कहीं न कहीं पुरूष पर अत्याचार होगा .

    बहरलाल उत्तम प्रस्तुति
    बधाई.ख़ूब बधाई !

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  8. स्त्री की मनोदशा का एक मार्मिक चित्र।

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  9. आपकी कविता में स्त्री के मन के हर पक्ष को उकेरा है ....बहुत अच्छी रचना ...इस रचना के लिए आप बधाई के पात्र हैं

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  10. जितनी गहनता से आपने नारी मन की वेदना को शब्द दिए हैं उसे पढ़ कर स्तब्ध एवम् अभिभूत हूँ ! कावेरी जी के चित्रों ने कविता की मार्मिकता को और गहनता और तीक्ष्णता दी है ! आप दोनों मेरी बधाई एवम् आभार स्वीकार करें !

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  11. पहला चित्र देखते ही समझ गए थे कि आपका काम नहीं है ये..

    बाकी नीचे वाले सब आपके हैं...है ना....??

    रचना के साथ चित्र काफी मैच कर रहे हैं..
    आपका आभार....

    अब कैसे हैं आप....??

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  12. kaafi soch vichar kar ....samajhdaari se likhi gayi hai ....

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  13. Yaqinan, vaastvikta ka ek pahlu yah bhi hai...

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  14. स्त्री की आर्त वेदना को आप संवेदनशील भावों से पुष्ट करते हुवे एक नारी के अंतर्द्वंद्वों और वेदना को व्यक्त करने में सफल हुवे हैं. रचना ऐसी बन पड़ी है कि हर इंसान को सोचने पर मजबूर करदे. कमाल की अभिव्यक्ति है. ऐसी रचना लिखने के लिए पुरुष को स्त्री चरित्र में ढलना पड़ता है, जो कि आसान काम नहीं है. तभी ये गहरी और वास्तविक अभिव्यंजना साकार हो पाती है. आप इस स्वधर्म का निर्वहन करने में सफल हुवे हैं..साथ ही तस्वीरें भी एक नारी के एकाकीपन और वेदना को साकार रूप देती पतीत होती है. शत-शत बधाई. आपकी इस रचना की प्रतिक्रिया व्यक्त करने में शब्द श्रीहीन हो गए हैं..! आपका कोटिशः आभार !!

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  15. stri bhi to purush ke liye
    aakarshit hoti hai.
    aakarshan men rahasy ki
    laharen chalati hain.
    rahasya ke ye laharen hi
    aapaki kalama se nikali.
    svaagat paakar nikhara gai
    ullasit bhava se bikhari.
    kah sadhaka kavi aadi kal se
    rahasya hai stri bhi.
    lekin purush ke aalingana ko
    machal rahi stri bhi.

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  16. भाव और विषय के स्तर पर रचना बहुत सुन्दर है.. लेकिन, अतिरिक्त का मोह.. पंच की सहजता को बाधित करता है ..फिर भी कुल मिला कर उत्कृष्ट रचना है

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  17. भावपूर्ण एवं अर्थपूर्ण रचना। स्त्री मन की चुप्पी और उसकी भावनाओं को जिस सहजता से आपने प्रस्तुत किया है। वह काबिल-ए-तारीफ है।

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  18. विजय जी चित्र और रचना दोनों बहुत अच्छी हैं...विषय अलबत्ता बहुत पुराना है लेकिन आपने उसे नए ढंग से कहने की कोशिश जरूर की है...आप याद करें इस विषय पर कही गयी साहिर की नज़्म... औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा दुत्कार दिया ...में येही बात अत्यंत प्रभावशाली अंदाज़ में कही है...
    वक्त आ गया है के हम स्त्री के दबे कुचले व्यक्तित्व को छोड़ कर उसे एक नए रूप में पेश करें...ऐसी रचनाएँ कहें जिनमें उसकी दारुण कथा न हो बल्कि जुल्म के खिलाफ उठती आवाज़ हो...मेरी गुज़ारिश है आप कैफ़ी आज़मी साहब की रचनाओं को पढ़ें...
    नीरज

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  19. विजय भैया, हमेशा की तरह आज भी आउटस्टैंडिंग है। सिम्प्ली ब्रिलियंट। मैं सिर्फ ये जानना चाहता हूं कि एक स्त्री के मन की पीड़ा इतने सहज भाव से आपने पुरुष होकर कैसे रखे। आपकी सोचपरकता, जीवन उद्यम और दूसरों के जीवन को पढ़ लेने की कला कहीं कहीं महाश्वेता देवी से भी आगे बढ़ जाती है। मैं तो स्तब्ध हूं कि आखिर ऐसी रचना आपने कैसे लिखी। वैसे मुझे इस कविता ने बहुत कुछ सिखाया है।

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  20. ek drishtikon hai..aap ki samvedanshilta sarahaniya hai..

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  21. नारी की अंतर्वेदना को बखूबी व्यक्त करती सुन्दर रचना

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  22. सभी चित्र और यह मार्मिक अभिव्यक्ति, बहुत गहरे उतरी बात!

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  23. recd. by email from Mrs. Shilpa ..

    Bhai Shri Vijayji,

    Namaste,

    Stree ka behtarin varnan karne hetu aapko dher saari badhiyan.bahut
    achhi kavita ban padi hai.


    Regards,
    Shilpa

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  24. recd by email from Mr. Bhuvendra Tyagi

    Very nice. Very realistic. Keep it up.
    regards,
    bhuvendra tyagi
    navbharat times
    mumbai

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  25. recd. by email from Ms. Gaaytri Sharma ..

    विजय जी,
    'स्त्री- एक अपरीचिता' अत्यन्त ही मर्मस्पर्शी कविता है आपकी। इसे पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई कि काफी समय बाद मुझे इतनी सुंदर व अर्थपूर्ण कविता पढ़ने को मिली। आपकी तरह तो नहीं पर थोड़ा बहुत मैं भी कविताएँ लिख लेती हूँ। कभी समय मिले तो मेरे ब्लॉग charkli01.blogspot.com और aparijita.mywebdunia.com पर गौर कीजिएगा। आशा है हम ‍लेखनी के माध्यम से निरंतर संपर्क में रहेंगे।

    - गायत्री शर्मा
    उपसंपादक
    नईदुनिया 'युवा', इंदौर

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  26. Vijay ji ...
    bahut hi arth poorn rachna .. stri man ki baarikiyon ko bahut samvedansheel tareeke se rakha hai aapne .. chitron ne aur bhi maarmik bana diya hai is rachna ko ...

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  27. विजय जी आपकी रचना अति उत्तम हैं| ऐसी रचना युगों में बहुत कम आती है, आज के युग की बेहतरीन कविता हैं| आपने इस कविता के माध्याम से स्त्री के मन का जो चित्रण किया हैं, वो कमाल का हैं| आप को सलाम इतनी अच्छी रचना के लिए|

    आपका

    अनुज कुलश्रेष्ठ

    सिडनी, ऑस्ट्रेलिया

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  28. सभी ने आप की कविता की काफी तारीफ की है पर मूझे कुछ अधूरापन लग रहा है,क्योंकि आज की नारी के संदर्भ में यदि है तो उसके साथ आपने अन्याय किया है। मार्मिक आंकलन है पर पुराने लहजे में।

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  29. नारी की अंतर्वेदना का बारीक़ चित्रण

    सराहनीय

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  30. recd. by email from Shri Bhika sharma ....

    विजय जी,
    काफी दिनों बाद एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली है। मुझे आपकी कविता ' दिल के दरवाजे पर दस्तक' अभी तक याद है जिसे हमने अपने पोर्टल वेबदुनिया पर प्रकाशित भी किया था।
    http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/poems/0812/29/1081229014_1.htm
    पिछले काफी दिनों से आपकी कोई कविता प्रकाशित नहीं हुई है। कुछ परेशानी हो तो जरूर बताइएगा।

    भीका शर्मा
    मैनेजर, वेबद‍ुनिया डॉट कॉम
    इंदौर, म.प्र.
    09425125483

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  31. recd. by email from Mr. Jitendra...

    EK ACHHI KAVITA. POST PER COMMENT NAHEE DE PAYA.
    KYA ISS KAVITA KO SADINAMA KE KISEE ANK MAIN UPYOG KIYA JAA SAKTA HAIN
    PLZ INFORM
    JITANSHU
    EDITOR
    SADINAMA
    H-5 GOVT QTRS BUDHE BUDGE
    KOLKATA-700137

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  32. recd. by email from Dr. Rachna....

    Vijay ji,

    main samjh nahi paa rahi ki aap nari na hoke bhi itna kareeb se uske man ko kaise padh paye. Meri dua hai ishwar se ki her purush is ehsas ko jee sake.

    adar sahit
    Rachana

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  33. विजय भाई
    नारी की वेदना को इतनी गहराई से कैसे समझ लिया आपने? मुझे लगता है कि कोई दुखियारी नींद में अपने भावों को व्यक्त कर रही होगी, आपने उन भावों को शब्द दे दिए। वैसे सच्चे कवि का काम भी यही है। दूसरों की पीड़ाओं में समाना और उसे अपनी वेदना बनाकर सबके सामने प्रस्तुत कर देना। सचमुच उत्कृष्ट रचना! बधाई कावेरी जी को, जिन्होंने आपके शब्दों को जीवंत कर दिया। बहुत अच्छा लगा। अंत में एक बात, सच-सच बताना, नारी अंतर्वेदना को समझने के लिए इतनी गहराई में डूबने पर डर तो नहीं लगा?
    डॉ. महेश परिमल
    09977276257

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  34. किसी भी अंतर्वेदना का मार्मिक चित्रण
    हमेशा हमेशा ही इंसान को कुछ गहरे सोचने पर
    मजबूर कर देता है ,,,
    और जब भाव और शिल्प में
    बहुत ज्यादा खूबसूरती हो ,
    तो काव्य का जादू सर चढ़ कर बोलने लगता है
    आपकी कविताएँ हर बार ,, बार बार
    पढने वालों को अपने तिलिस्म में बाँध लेती हैं

    आपके मन की भावनाएं एवं संवेदनाएं
    आपके शब्दों में ऐसे मुखर हो उठती हैं मानो
    हर पढने वाला आपकी रचना के माध्यम से
    आपकी कविता में गढ़े गए पात्रों से baatein karne लगता है ...
    आपकी काव्य kshamtaa किसी से chhipi
    nahi reh gayi है

    ye kaavy भी aapne मानो smaadhi lagaa lene के baad ही
    rachaa है...
    aisa prateet हो rahaa है

    lekin
    "albela khatri ji" और "harshitaaji" के vichaaron से
    sehmat hoon ...

    net kaam nahi कर rahaa है
    this is right from cyber-cafe.

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  35. विजय जी , बस यही कहूँगी की एक स्त्री की मनोव्यथा को आपने अपने शब्दों से बहुत अच्छी तरह चित्रित किया है.....................

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  36. पहले तो सोचा की टिपण्णी न करूँ...क्योंकि पूर्ण सम्भावना है कि जो मैं कहूँगी आपको अच्छा नहीं लगेगा..
    लेकिन फिर सोचा कि जब आपने पढने और विचार देने का इतना विनम्र आग्रह किया है तो मन की बात कह ही देती हूँ..

    विजय जी,स्त्री मन की व्यथा का जो स्थूल चित्रण आपने किया है,वह करुण नहीं वीभत्स रस उत्पन्न कर रहा है..पढ़कर मन बुरी तरह गिजगिजा गया....जो विषय आपने उठाया है, यह एक ऐसा विषय है,जिसपर कईयों ने अपनी कलम चलाई है...हो सके तो पढ़ कर देखिये...
    बात जब कही जाय और उसका उद्देश्य पूर्णता न पाए , तो बात कहने का क्या अर्थ रह जाता है..
    आपने जैसे शब्दों का व्यवहार रचना में किया है, या तो आपको उनके अर्थ नहीं मालूम या कविता में भाव सम्प्रेषण के लिए सटीक शब्द चयन की गंभीरता से आप परिचित नहीं...

    मैं भी एक स्त्री हूँ,थोडा बहुत लिखना पढना भी जानती हूँ और जीवन के उतार चढ़ाव से भली भांति दो चार हुई हूँ...पर अपनी या स्त्री जगत की पीड़ा को यदि चित्रित करुँगी तो क्या ऐसे करुँगी ??? शिष्टता भी कोई चीज होती है या नहीं ??? स्त्री बनकर सोच पाना और भावोद्गार इतना भी सरल नहीं विजय जी..

    बहुतेरे लोग आपको यहाँ मिलेंगे जो वाह वाह कहकर निकल लेंगे और बगल में जाकर मुंह दबाकर हँसेंगे...आप गंभीरता से लेखन में रत होना चाहते हैं,मैं जानती हूँ....तो आपको बहुत गंभीर होना होगा इसके लिए...
    यदि आप हिंदी में लिखना चाहते हैं,तो पहले हिंदी में उत्कृष्ट बहुत कुछ पढ़िए...आपको खुद समझ में आ जायेगा कि क्या और कैसे लिखना चाहिए...लेखन के लिए केवल भाव ही नहीं चाहिए,शब्दों की बहुत बड़ी पूंजी चाहिए...

    आशा है मेरी बातों को आप अन्यथा नहीं लेंगे.. चूँकि आपकी यह रचना पढ़कर मुझे बहुत दुःख हुआ और लगा अभी यदि ईमानदारी से आपको नहीं बताया तो निश्चित ही इसकी पुनरावृत्ति होगी,इसलिए कह रही हूँ..

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  37. recd by email from Mr. Chandrapal....

    इस कविता में एक शब्द आपने इस्तेमाल किया है 'अपरिचित'. मैं वाकई में इस से बहुत प्रभावित हुआ हूँ... स्त्री की सही परिभाषा पुरुष के लिए 'अपरिचित ही है. एक बात और कहना चाहूँगा की स्त्री की दयनीय हालत पर कब तक हम लिखते रहेंगे और बोलते रहेंगे... क्या हम उन समस्याओ तक पहुँच पा रहे है जो स्त्री की इस हालत के लिए जिम्मेदार है. बधाई आपको, चंद्रपाल, http://aakhar.org

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  38. विजय साहब...
    कमेंट्स तो आते ही रहेंग मेल से...
    लेकिन आप ज़रा ऊपर वाली गंभीर टिपण्णी को ज़रा गंभीरता से लें...
    ये जरूरी है...

    ReplyDelete
  39. मैं रंजना जी से सहमत हूं भाई…ऐसे संवेदनशील विषय पर कविता लिखने के लिये जिस समझ और जिस संवेदना की ज़रूरत है…मुझे उसका अभाव लगा…

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  40. kavitaa bahut badhiyaa hai aur kuchh nazdekee logo ke rishto ke kaaran yahe sab in dino dimag mai chal bhee rahaa hai
    ye kavitaa bahut saleeke se aur anubhooti kee gahraai se likhee gai hai

    ReplyDelete
  41. प्रभावशाली अभिव्यक्ति ...मनोभावो को संवेदनशीलता से उकेरा है .पर आज की नारी इतनी भी बेचारी नहीं रही :)

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  42. vijay jee aapki ees rachana ko pad kar wakhi dimang ki batti jal gai "really u r great poet" aur mai kya kahu jinki lekhani etni mahan ho o kitna mahan hoga ............ thax vijay g thax

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  43. ऐसी नहीं होती है कविता
    बिल्‍कुल सच कह रहा हूं
    रंजना जी ने भी
    सच ही कहा है
    और अशोक पांडेय जी का
    लिखा ठीक है।
    चित्र लगा लेना
    और शब्‍द टांक देना
    कविता नहीं होते
    सिर्फ अर्थ भी नहीं होती है कविता
    कविता और भी बहुत कुछ होती है।
    सिर्फ टिप्‍पणी भर नहीं होती है
    और न सोचने को मजबूर ही करती है
    बयां असलियत करना
    शिष्‍टता के साथ
    अच्‍छी कविता के लिए
    बहुत जरूरी है
    गहरे तक जरूरी है।

    परिवार में सब के साथ बैठकर
    पढ़ी-समझी जाए और
    किया जा सके जिस पर
    सबके साथ मिलकर विमर्श
    ऐसी न हो
    तब भी ऐसी न हो
    कि किसी की ऐसी-तैसी करती चले
    क्‍योंकि सब ऐसे ही नहीं होते
    विजय जी, आप तो ऐसे न थे।

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  44. आप सभी गुरुजनों और मित्रों का आभार और धन्यवाद.

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  45. लगभग हर स्त्री की मनोदशा का एक मार्मिक चित्र। दिल को छू गयी रचना। धन्यवाद, शुभकामनायें

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  46. स्त्री के अंतर्मन की सशक्त अभिव्यक्ति है यह कविता में। इस रचनात्मक उत्कर्ष के लिए बधाई !

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  47. स्त्री ! एक अपरिचिता !एक उपेक्षिता ! कितनी सुंदर वाणी दी है आपने ! आदि से अंत तक स्त्री के दुःख दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति ! बहुत बहुत बधाई

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  48. आपने स्त्री के मन की व्यथा को खूब चित्रित किया है और कावेरी जी के चित्रों में उसे सजीव कर दिया है ।
    क्यूंकि पुरुष को स्त्री का सिर्फ शरीर ही दिखता है िसी कारण आज की स्त्री उसे ही पेश कर रही है कि मन तो वैसे ही तेरी समझ से बाहर है तू वही देख जो तू समझ सकता है ............. । इसे स्वगत समझ लें (loud thinking)।

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  49. खूबसूरत। अति सुन्दर। शब्द नही मिल रहे बयान करने को सिर्फ आंसू हैं आंखों मे। वाह अबला नारी तेरा कोई मिसाल नही।
    रमेश

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  50. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

    स्त्री के मन के हर भाव को उजागर किया है ...विचारपूर्ण प्रस्तुति

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  51. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html

    arun c roy said...

    बहुत सुन्देर कविता..

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  52. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html

    पूर्णिमा said...

    भावपूर्ण और विचारणीय कविता के लिए विजय जी आपको बधाईयाँ !

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  53. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    ρяєєтι said...

    Toooo Good...!
    स्त्री मन् को दर्शाती सशख्त रचना ...!

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  54. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    रेखा श्रीवास्तव said...

    नारी मन की भावनाओं को जितनी बारीकी से उकेरा है वह तारीफ के काबिल ही है और आज भी नारी इससे ऊपर क्या है? इसके देखने के लिए कितने घर झाँकने होंगे और उसपर भी १०० में से आप को सिर्फ और सिर्फ १० ऐसे मिलेंगे जिनमें नारी मन संतुष्ट है. अपनी भूमिका से और अपने प्रति औरो कि भूमिका से. नहीं तो आँखों में झांक कर देख लें तो पता चल जाएगा कि रोज गाड़ी में बैठ कर ऑफिस आने वाली नारी या पति के साथ पार्टियों में साथ देने वाली नारी कितनी खुश है? वो मानसिकता बदल नहीं पा रही है और अपनी सोच उन्हें समझ नहीं पा रही है पता नहीं और कितने दशकों तक ये ही कहानी उसकी बनी रहेगी.

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  55. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    Mukesh Kumar Sinha said...

    female mann ko jhankrit karne wali rachna........lekin sir!! jeevan me iske alag bhi kuchh hai, kyonki adhiktar purush ne stri ko dil se chaha hai, sirf bhogya nahi samjha......:)

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  56. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    mala said...

    तारीफ के काबिल है कविता..

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  57. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html

    गीतेश said...

    स्त्री मन की व्यथा पर एक सार्थक पहल करती हुयी विचारों से परिपूर्ण कविता, अच्छी लगी !

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  58. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html

    ज्योत्स्ना पाण्डेय said...

    एक स्त्री की व्यथा को उजागर करती सशक्त रचना ......एक पुरुष के द्वारा की गयी अभिव्यक्ति रचना को और भी प्रभावी बना देता है....

    विजय जी, शुभकामनाएं व आभार!

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  59. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    रानीविशाल said...

    नारी ह्रदय की पीड़ा का बहुत ही अच्छे से शब्दचित्र उकेरा है आपने .....

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  60. comment recd on
    http://urvija.parikalpnaa.com/2010/09/blog-post_21.html


    वाणी गीत said...

    तुम मुझे जान ना सके ...फिर भी मैं तुम्हारी ही रही ...
    अपिरिचित स्त्री को परिचित कराती अच्छी कविता ..!

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  61. aap ki naari paksh daeti huyi kavitaa , kewal kavita nahin haen yae ek samvaad haen jo adhura haen kyuki in prashno kae jawaab hi nahin haen

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  62. Aapne bilkul sahi kaha hai is post...mujhe padte waqt aisa laga ki mai ek nahi jinti bhi satreeyon ko maine janti hu ya dekha aisa lagta hai ki ye prashan sabhi ki shaklon par likha hai...jo ya to kabhi koi dekhna nahi chahta ya fir dekh kar bhi andekha krta hai...

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