सिलसिला कुछ इस तरह बना..........!
कि मैं लम्हों को
ढूंढता था खुली हुई नींद के तले |
क्योंकि मुझे सपने
देखना पसंद थे - जागते हुए भी ;
और चूंकि मैं उकता गया
था ज़िन्दगी की हकीक़त से !
अब किताबो में लिखी हर
बात तो सच नहीं होती न .
इसलिए मैं लम्हों को
ढूंढता था ||
फिर एक दिन कायनात रुक
गयी ;
दरवेश मुझे देख कर
मुस्कराये
और ज़िन्दगी के एक लम्हे
में तुम दिखी ;
लम्हा उस वक़्त मुझे बड़ा
अपना सा लगा ,
जबकि वो था अजनबी -
हमेशा की तरह ||
देवताओ ;
मैंने उस लम्हे को कैद किया है ..
अक्सर अपने अल्फाजो में ,
अपने नज्मो में ...
अपने ख्वाबो में ..
अपने आप में ....||
एक ज़माना सा गुजर गया
है ;
कि अब सिर्फ तुम हो और
वो लम्हा है ||
ये अलग बात है कि तुम
हकीक़त में कहीं भी नहीं हो .
बस एक ख्याल का साया
बन कर जी रही हो मेरे संग .
हाँ , ये
जरुर सोचता हूँ कि तुम ज़िन्दगी की धडकनों में होती
तो ये ज़िन्दगी कुछ जुदा
सी जरुर होती……||
पर उस ज़िन्दगी का उम्र
से क्या रिश्ता .
जिस लम्हे में तुम थी, उसी में ज़िन्दगी बसर हो गयी .
और ये सिलसिला अब तलक जारी है …….|||