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ज़िन्दगी, रिश्ते और बर्फ .....!
अक्सर सोचता हूँ ,
रिश्ते क्यों जम जाते है ;
बर्फ की तरह !!!
एक ऐसी बर्फ ..
जो सोचने पर मजबूर कर दे..
एक ऐसी बर्फ...
जो जीवन को पत्थर बना दे......
एक ऐसी बर्फ ..
जो पिघलने से इनकार कर दे...
इन रिश्तों की उष्णता ,
दर्द की पराकाष्ठा पर पहुँच कर ,
जीवन की आग में जलकर ;
बर्फ बन जाती है ......
और अक्सर ही हमें शूल की तरह चुभते जाते है
और भीतर ही भीतर जमते जाते है ये रिश्तें......
फिर ; अचानक ही एक दिन ;
हम !
अपने बनाये रिश्तो को देखते है
किसी पाषाण शिला
की तरह हिमखंड सी बर्फ में जमे हुए......
ये रिश्ते ताकते है ;
हमारी ओर !
और हमसे पूछते है ,
एक मौन प्रश्न ...
ये जन्म क्या यूँ ही बीतेंगा !
हमारी जमी हुई उष्णता कब पिघलेंगी !
हम निशब्द होते है
अपने ही रिश्तों के अबोध प्रश्नों पर
और अपनी जीवन की जटिलता पर ....
रिश्तों की बर्फ हर पल और ज्यादा जमती जाती है ..
और लगता है जैसे हर बीतता हुआ एक एक पल ;
एक एक युग की उदासी और इन्तजार लिए हुए हो !!
और हम एक जीवंत मृत्यु की चादर ओढे ;
एक निश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा करते है..!
लेकिन ;
अक्सर इन रिश्तों की
जमी हुई बर्फ में,
हमें ,अपने ही आंसू ;
तैरते हुए दिखते है .......!!
और हम एक जीवंत मृत्यु की चादर ओढे ;
ReplyDeleteएक निश्चित मृत्यु की प्रतीक्षा करते है..!
यही जीवन का सत्य है ………रिश्ता तो सिर्फ़ एक ही ऐसा है जो चिरंतन है बस वो ही हमेशा साथ रहता है बाकि तो सभी रिश्ते हिमखंड ही हैं
अक्सर इन रिश्तों की
जमी हुई बर्फ में,
हमें ,अपने ही आंसू ;
तैरते हुए दिखते है .......!!
हाँ ऐसा ही मिलेगा जब तक हम रिश्तों की चादर को ओढ कर बैठेंगे जिस दिन इस मोह के प्रपंच से बाहर निकलेंगे वहाँ आँसू नही सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्कान दिखेगी वो भी अपनी ही ऊषा की प्रथम किरण सी
वाह....................
ReplyDeleteबिलकुल सच कहा................
रिश्तों में उष्णता बनाये रखें और ना जमने दी जाये बर्फ की एक पतली परत भी....
बहुत प्यारी रचना.
अनु
विजय जी ,
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कविता है ॥मन को छू गई कहीं भीतर तक ...सोच रही हूँ अपने विद्यार्थियों से इस बार एक अभ्यास करवाऊँ ॥ अपकी आज्ञा आपेक्षित है ॥
सविनय
कुमुदिनी
आदरणीय कुमुदिनी जी ;
Deleteनमस्कार
मेरी आज्ञा की कोई जरुरत नहीं है मित्र. आपको कविता अच्छी लगी , मेरे लिये यही पुरस्कार है.
आप ले लीजिए ये कविता .
आपका बहुत आभार .
विजय
अक्सर इन रिश्तों की
ReplyDeleteजमी हुई बर्फ में,
हमें ,अपने ही आंसू ;
तैरते हुए दिखते है .......!!
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
bahut achha likha hai yun laga apna hi man padh rahi hun.
ReplyDeletelikhte rahiye.
shubhkamnayen
Kya baat kahee hai!
ReplyDeleteरिश्ते जब दुःख देते हैं
ReplyDeleteतब वो ..
पत्थर बन जाते हैं
उन पत्थरों पर फिर बर्फ जमे या
वक्त की धूल ..
कोई फर्क नहीं पड़ता
रिश्ते जब दम तोड़ते हैं
वो अंतिम साँस नहीं लेते
वो ता उम्र इस दिल में,
कटु यादों के रूप में रिसते हैं
पर बर्फ की मानिद पिघलते नहीं हैं
अगर कभी ये बर्फ पिघलने लगे तो
कुछ बोझ कम हो जाए
इस जीवन से ||...अनु
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ReplyDeleteआपकी भावों से लद कद कविताओं को पढने के उपरांत मन की ऐसी स्थिति हो जाती है कि , बिलकुल भी समझ नहीं आता कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ..एकदम निःशब्दता की स्थिति बन जाती है, या लगता है कि बस बोलती ही जाऊं, बोलती ही जाऊं ..इतना बोलूं कि लगे, अब मनोभाव अभिव्यक्त हुआ...
..
खैर, इतनी गर्मी में इस कविता द्वारा जो बर्फीला अहसास आपने दिया, दिल कूल कूल हो गया..
ऐसे ही लिखते रहें...
बहुत बहुत शुभकामनाएं..
सादर,
रंजना.
hmmmm....
ReplyDeleteलेकिन ;
अक्सर इन रिश्तों की
जमी हुई बर्फ में,
हमें ,अपने ही आंसू ;
तैरते हुए दिखते है .......!!
udaas si hop gayi main padh kar rishton ka katu satya
par sach se bhagna kaisa hai to hai....
dil ko chhoo gayi aapki barfeeli rachna
abhaar
काश भावों की गतिमयता इस बर्फ को पिघला दे।
ReplyDeletegood one
ReplyDeleteजब आदमी कुछ समय मौन रहकर एकांत में ध्यान करता है तो वह अपनी रूहानी हक़ीक़त को देख लेता है।
ReplyDeletehttp://sufidarwesh.blogspot.in/2012/05/ruhani-haqiqat.html
बहुत खूब....
ReplyDeleteआपके इस पोस्ट की चर्चा आज रात ९ बजे ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित होगी... धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...
http://bulletinofblog.blogspot.in/
बहुत खूब सर ...
ReplyDeleteरिश्तों में भावनाओ की उष्णता होनी चाहिए
नहीं तो उनमे बर्फ पड़ जाती है....
बहुत बेहतरीन रचना :-)
अक्सर इन रिश्तों की
ReplyDeleteजमी हुई बर्फ में,
हमें ,अपने ही आंसू ;
तैरते हुए दिखते है .......!
.....यही जीवन का कटु सत्य है...बहुत मर्मस्पर्शी रचना...
एक ऐसी बर्फ ..
ReplyDeleteजो पिघलने से इनकार कर दे...
-कभी तो पिघलेगी ये बरफ...इसी आस में जिये जाते हैं...उम्दा रचना!!
बहुत सुन्दर कविता
ReplyDeleteबहुत खूब.... आपके इस पोस्ट की चर्चा आज ब्लॉग बुलेटिन पर प्रकाशित है... धन्यवाद.... अपनी राय अवश्य दें...
ReplyDeleteभावनाओं के समुद्र में सच्चाई का ज्वार !प्रस्तुति बहुत ही अच्छी बन पड़ी है |
ReplyDeleteसुधा भार्गव
रिश्तों के बीच का बर्फीला cold wave बड़ी मुश्किल से थमता है.....
ReplyDeleteइसमें जम गया feeling एकबार गर,वो कहाँ आसानी से गलता है !
रिश्तों की बर्फ बन चुकी उष्णता पिघलने में बड़ा समय लेती है...
ये पिघलती नहीं आसानी से कभी कभी पूरी जिंदगी बीत जाती है !!
गुजारिश है मेरे दोस्तों..!
अपने रिश्तों की गुनगुनी गरमाहट को बना के रखिए....
कुछ भी हो जाए इन रिश्तों में प्यार बना के रखिए...!
न जमने दीजिये अपनेपन की गर्मी को ग्लेशियर में.....
न आने दीजिये किसी बड़ी तकरार को अपने बीच में.....
न आने दीजिये कभी किसी तीसरे को अपने बीच में.....
न पसरने दीजिये एक शाश्वत मौन को अपने बीच में...
अहं के परिंदे को पर भी न मारने दीजिये...!!
और एक-दूसरे के सम्मान को बना के रखिए....!!
ईमेल के द्वारा कमेन्ट :
ReplyDeletenarendra agrawal :
Dear Sri VK Ji
Your poem depicts the depth of "RISHTE" some thing that every one has experienced. A very nice literary piece.
ईमेल के द्वारा कमेन्ट :
ReplyDeletesheel nigam sheelnigam@yahoo.com
kavita sundar hai,rishton aur bhavnaon ka sammishran bahut sundar tareeke cse kiya hai,vorodhabhas mein bhi aikatmatta jhalaktee hai.
Bahut Sunder bhawpurn kavita
ReplyDeletecomment by email :
ReplyDeleteSpeechless.
Yahi sach hai rishton ka
lata
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ReplyDeleteUpasna Siag
बहुत सुन्दर कविता
मिलने की चाह में दिलबर से इस नीर ने भी कई रूप धरे !
Deleteकभी उड़ के हवा के साथ चला कभी बर्फ़ में ढल के देखा है !!
Vijay ji aapki kavita pe mujhe apni ye do panktiyan yaad aa gayi
comment on FB
ReplyDeleteRamaajay Sharma
bahut sunder bhav
रिश्तों के दर्शन पर एक अच्छी मार्मिक कविता है। बधाई। एक भाषाई विसंगति की ओर संकेत करना चाहूँगा, आशा है अन्यथा नहीं लेंगे। "हम" के साथ "हमारे" का प्रयोग नहीं होता अपितु "अपने" का प्रयोग होता है। अतः "हम !
ReplyDeleteहमारे बनाये रिश्तो को देखते हैं" के स्थान पर होना चाहिए "हम! अपने बनाए रिश्तों को देखते हैं।"
भूपेंद्र जी
Deleteआपके कमेन्ट का शुक्रिया
और मैं अभी बदलाव करता हूं .
धन्यवाद और आभार .
विजय
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ReplyDeleteJai Prakash Gautam
RISTO KO TAPIS DO EHSASO KI TO BARF BHI PIGHAL JAYEGI...WARNA TO JINDGI ME RISTE BANTE BIGNA AAM BAAT HE..
रिश्तों के अबोध प्रश्नों पर निशब्द होते है सब ..और बर्फ रूह तक जमाने लगती है..बस थोड़ी सी उष्णता .. फिर पिघल भी तो जाता है सब कुछ..
ReplyDeleteविजय जी सुन्दर भावमय अभिव्यक्ति । कामना करता हूँ कि आपकी लेखनी से ऐसे ही रत्न झरते रहें और पाठकों को उनकी चमक में खुद की भावनाएँ समझने का मौका मिलता रहे ।
ReplyDeletecomment on FB :
ReplyDeleteXitija Singh
फिर ; अचानक ही एक दिन ;
हम !
हमारे बनाये रिश्तो को देखते है
किसी पाषाण शिला
की तरह हिमखंड सी बर्फ में जमे हुए......
ये रिश्ते ताकते है ;
हमारी ओर !
और हमसे पूछते है ,
एक मौन प्रश्न ...
ये जन्म क्या यूँ ही बीतेंगा !
हमारी जमी हुई उष्णता कब पिघलेंगी !... वाह ... क्या बात है ... बेहद खूबसूरत रचना विजय जी ... !!!
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteइंडिया दर्पण की ओर से आभार।
ईमेल के द्वारा कमेन्ट :
ReplyDeleteSanjay Habib
सुन्दर चिंतन... बहुत बढ़िया रचना...
सादर बधाई.
अल्प शब्दों में विस्तृत अभिव्यक्ति है ........
ReplyDeleteमुझको अपनी कविताओं में भी आपकी उपस्थिति की आशा है .....
ReplyDeleteजरुर शिवानीजी ,मैं जरुर पढूंगा आपकी कविताओ को .
Deleteधन्यवाद जी .
बर्फ है कभी तो पिघलेगी.
ReplyDeleteपिघलते रिश्ते से टपकती बूँद आंसू बनती है .
आंसू को न जमने दो
गर्म आंसू से रिश्तों की परत पिघलती है .
बहुत अच्छी कविता।
ReplyDeleteVery nice post.....
ReplyDeleteAabhar!
Mere blog pr padhare.
बहुत बार रिश्तों को बर्फ बनते देखा है, लेकिन पिघलते नहीं देखा कभी । बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति
ReplyDeleteराजस्थान : जातिवादी तत्वों के मुंह पर एक करारा तमाचा
अच्छी भावपूर्ण कविता है--परन्तु मेरे विचार से एक विपरीत-भाव-विसंगति है...यथा...निम्न पैरा..
ReplyDelete"इन रिश्तों की उष्णता ,
दर्द की पराकाष्ठा पर पहुँच कर ,
जीवन की आग में जलकर ;
बर्फ बन जाती है ......"
--- यदि रिश्तों में उष्णता रहेगी तो न दर्द पराकाष्ठा पर पहुंचेगा न बर्फ ही जमेगी ...वर्फ तभी जमती है जब रिश्तों में उष्णता नहीं रहती....
अच्छी , यथार्थपरक कविता के लिए मेरी बधाई...।
ReplyDeleteSundar abhivyakti kuchh rishton ke sach ki...
ReplyDeleteआपकी कविता में जो रस है
ReplyDeleteवो अन्तर्मन् को स्पर्श कर
आत्मा तक पहुँच गयी।
पुण्य प्रकाश त्रिपाठी
एक सोच