Friday, June 15, 2012

सलीब


कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे - कराहे नही निकलती है..!

बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!

हँसता हूँ मैं ,
कि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...

सुना है , सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब ,
आज भी दिखती है ...

मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....

36 comments:

  1. बहुत सुन्दर .... सलीब पर कोई रोने वाले अगर मिल जाये तो ये जिंदगानी के कोई मायने हो

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  2. पीड़ा पीना, फिर भी जीना, एक राह सबको जाना,

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  3. कविता पढ़ते-पढ़ते एक सलीब उग आया ..दर्द का अहसास होने लगा ..सफ़र तो करना ही है और दर्द भी सहना ही है..आह..!

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  4. अपनी अपनी सलीब सबको खुद उठानी पडती हैं ।

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  5. बहुत खूब सर!


    सादर

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  6. कुछ अजीब सी कशिश है इस रचना में....

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  7. bahut achchhi kavita hai aur man ko chhu jati hai.

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  8. बहुत खूब, उम्दा काव्य विजय भाई

    मिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से
    रामगढ में,
    जहाँ रचा गया मेघदूत।

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  9. यूँ तो पूरी कविता बहुत सुंदर है परन्तु कुछ पंक्तियाँ तो अद्भुत है जैसे

    बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
    इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!


    या फिर

    कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
    आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..

    बधाई इस प्रस्तुति के लिये.

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  10. बहुत दर्द समेटे हुए हैं ..

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  11. पर ;
    कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
    कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....

    sach kaha....
    bahut achha likha hai

    shubhkamnayen

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  12. मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
    पर ;
    कोई मेरी सलीब भी तो देखे....

    sach me... har insaan ki tamanna... koi hamari peera bhi samjhe..

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  13. LAJAWAAB KAVITA KE LIYE APKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.

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  14. अतीव पीड़ा की अनुभूति करती हुई सुन्दर कविता !

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  15. इतनी सलीबों पर क्या क्या लटकाना पडता है अपने अरमान, अपनी, भावनाएं अपनी जिंदगी................. ।

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  16. जिंदगी के कई पहलू हैं .......एक पहलू ये भी !

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  17. लटके हुवे सलीब पर, धड़ की दुर्गति देख ।

    जीभ धड़ा-धड़ चल रही, अजब भाग्य का लेख ?

    अजब भाग्य का लेख , ढूँढ ले रोने वाले ।

    बाकी जान-जहान, शीघ्र ना खोने वाले ।

    चेहरे की मुस्कान, मगर कातिल की खटके ।

    करनी बंद दुकान, मरो झट लटके लटके ।।

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  18. देखे कौन यहाँ किसको अवाज दूँ
    सबके काँधों पर अपने सलीब हैं


    सुंदर रचना...
    सादर।

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  19. सुन्दर अभिव्यक्ति.
    सलीब के चिंतन से ही सलीब से मुक्त हुआ जा सकता है.

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  20. सब अपनी-अपनी ढोने में लगे हैं, कहाँ किसी को अवकाश कि दूसरों की सलीब देखें !

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  21. सबकी अपनी अपनी सलीब .... सबका अपना अपना रोना ... अच्छी प्रस्तुति

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  22. बहुत ही सुन्दर रचना.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  23. ...बहुत सुन्दर रचना!

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  24. हँसता हूँ मैं ,
    कि..
    ये सारी सलीबें ;
    सिर्फ़ सुबह से शाम और
    फिर शाम से सुबह तक के
    सफर के लिए है ...

    ....यही ज़िंदगी का दर्द और शाश्वत सत्य है...बहुत मर्मस्पर्शी रचना....

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  25. मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
    पर ;
    कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
    कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....
    wah.... kya kahun speechless

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  26. आपकी कवितायें,निसंदेह,भावपूर्ण हैं,क्षमा करें,सलीबों पर देवता चढते हैं
    हम-आप तो इन्सान हैं,जो केवल इस जीवन के हकदार हैं.हर-पल जिएं
    पलों में स्वर्ग ढूढिये,और कुछ भी नहीं.

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  27. आपकी कवितायें,निसंदेह,भावपूर्ण हैं,क्षमा करें,सलीबों पर देवता चढते हैं
    हम-आप तो इन्सान हैं,जो केवल इस जीवन के हकदार हैं.हर-पल जिएं
    पलों में स्वर्ग ढूढिये,और कुछ भी नहीं.

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  28. bahut kuchha sikhati hai ye kavita

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