कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे - कराहे नही निकलती है..!
बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!
हँसता हूँ मैं ,
कि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...
सुना है , सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब ,
आज भी दिखती है ...
मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....
बहुत सुन्दर .... सलीब पर कोई रोने वाले अगर मिल जाये तो ये जिंदगानी के कोई मायने हो
ReplyDeleteपीड़ा पीना, फिर भी जीना, एक राह सबको जाना,
ReplyDeleteकविता पढ़ते-पढ़ते एक सलीब उग आया ..दर्द का अहसास होने लगा ..सफ़र तो करना ही है और दर्द भी सहना ही है..आह..!
ReplyDeleteअपनी अपनी सलीब सबको खुद उठानी पडती हैं ।
ReplyDeleteबहुत खूब सर!
ReplyDeleteसादर
कुछ अजीब सी कशिश है इस रचना में....
ReplyDeletebahut achchhi kavita hai aur man ko chhu jati hai.
ReplyDeleteबहुत खूब, उम्दा काव्य विजय भाई
ReplyDeleteमिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से रामगढ में,
जहाँ रचा गया मेघदूत।
यूँ तो पूरी कविता बहुत सुंदर है परन्तु कुछ पंक्तियाँ तो अद्भुत है जैसे
ReplyDeleteबहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!
या फिर
कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
बधाई इस प्रस्तुति के लिये.
...वाह!
ReplyDeleteबहुत दर्द समेटे हुए हैं ..
ReplyDeletegood compostion of words
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteपर ;
ReplyDeleteकोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....
sach kaha....
bahut achha likha hai
shubhkamnayen
पीड़ा की पराकाष्ठा
ReplyDeleteमैं देवता तो नही बनना चाहता..,
ReplyDeleteपर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
sach me... har insaan ki tamanna... koi hamari peera bhi samjhe..
LAJAWAAB KAVITA KE LIYE APKO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
ReplyDeleteवाह !!!
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteअतीव पीड़ा की अनुभूति करती हुई सुन्दर कविता !
ReplyDeleteइतनी सलीबों पर क्या क्या लटकाना पडता है अपने अरमान, अपनी, भावनाएं अपनी जिंदगी................. ।
ReplyDeleteजिंदगी के कई पहलू हैं .......एक पहलू ये भी !
ReplyDeleteलटके हुवे सलीब पर, धड़ की दुर्गति देख ।
ReplyDeleteजीभ धड़ा-धड़ चल रही, अजब भाग्य का लेख ?
अजब भाग्य का लेख , ढूँढ ले रोने वाले ।
बाकी जान-जहान, शीघ्र ना खोने वाले ।
चेहरे की मुस्कान, मगर कातिल की खटके ।
करनी बंद दुकान, मरो झट लटके लटके ।।
देखे कौन यहाँ किसको अवाज दूँ
ReplyDeleteसबके काँधों पर अपने सलीब हैं
सुंदर रचना...
सादर।
umda abhivyakti ...
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसलीब के चिंतन से ही सलीब से मुक्त हुआ जा सकता है.
सब अपनी-अपनी ढोने में लगे हैं, कहाँ किसी को अवकाश कि दूसरों की सलीब देखें !
ReplyDeleteजबरदस्त!
ReplyDeleteसबकी अपनी अपनी सलीब .... सबका अपना अपना रोना ... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना.. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDelete...बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteहँसता हूँ मैं ,
ReplyDeleteकि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...
....यही ज़िंदगी का दर्द और शाश्वत सत्य है...बहुत मर्मस्पर्शी रचना....
मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
ReplyDeleteपर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....
wah.... kya kahun speechless
आपकी कवितायें,निसंदेह,भावपूर्ण हैं,क्षमा करें,सलीबों पर देवता चढते हैं
ReplyDeleteहम-आप तो इन्सान हैं,जो केवल इस जीवन के हकदार हैं.हर-पल जिएं
पलों में स्वर्ग ढूढिये,और कुछ भी नहीं.
आपकी कवितायें,निसंदेह,भावपूर्ण हैं,क्षमा करें,सलीबों पर देवता चढते हैं
ReplyDeleteहम-आप तो इन्सान हैं,जो केवल इस जीवन के हकदार हैं.हर-पल जिएं
पलों में स्वर्ग ढूढिये,और कुछ भी नहीं.
bahut kuchha sikhati hai ye kavita
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