Thursday, November 26, 2015

नज़्म : शहीद हूँ मैं .....


दोस्तों , मेरी ये नज़्म , उन सारे शहीदों को मेरी श्रद्दांजलि है , जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर , मुंबई को 26 / 11  को आतंक से मुक्त कराया. मैं उन सब को शत- शत बार नमन करता हूँ. उनकी कुर्बानी हमारे लिए है ............!!!

शहीद हूँ मैं .....

मेरे देशवाशियों
जब कभी आप खुलकर हंसोंगे ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी नही हँसेंगे...

जब आप शाम को अपने
घर लौटें ,और अपने अपनों को
इन्तजार करते हुए देखे,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरा इन्तजार नही करेंगे..

जब आप अपने घर के साथ खाना खाएं
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरे साथ खा नही पायेंगे.

जब आप अपने बच्चो के साथ खेले ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
मेरे बच्चों को अब कभी भी मेरी गोद नही मिल पाएंगी

जब आप सकून से सोयें
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
वो अब भी मेरे लिए जागते है ...

मेरे देशवाशियों ;
शहीद हूँ मैं ,
मुझे भी कभी याद कर लेना ..
आपका परिवार आज जिंदा है ;
क्योंकि ,
नही हूँ...आज मैं !!!!!
शहीद हूँ मैं …………..

विजय



Saturday, October 17, 2015

एक ज़िन्दगी

एक ज़िन्दगी
और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ....
कितनी किताबे पढना है बाकी
कितने सिनेमा देखना है बाकी
कितने जगहों पर जाना है बाकी
हक़ीकत में एक पूरी ज़िन्दगी जीना है बाकी !
एक ज़िन्दगी
और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ....
© विजय

Thursday, October 15, 2015

एक नज़्म खुदा के लिए.........


उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा
तुमने उस हाथ को दफना दिया
अपनी जिस्म की जमीन में !
और कुछ आंसू जो मेरे नाम के थे ,
उन्हें भी दफना दिया अपनी आत्मा के साथ !

अब तुम हो
और मैं हूँ
और हम बहुत दूर है !
हां; इश्क खुदा के आगोश में चुपचाप बैठा है!

खुदा ने एक कब्र बनायीं है ,
तुम्हारी और मेरी ,
उसने उसमे कुछ फूल और आहो के साथ मेरी प्रार्थनाओ को भी दफ़न किया है !

हां ;
कुछ लोग अब भी मेरी नज्मे पढ़ते है और मोहब्बत की बाते करते है !

© विजय

Thursday, September 24, 2015

/// नज़्म : दुनिया, तुम और मैं !!! ///

/// नज़्म : दुनिया, तुम और मैं !!! ///

दुनिया भर घूम आते हो !
दुनिया को जी भर कर देखते हो !!
दुनिया से बाते करते रहते हो ....!!!

.......कभी उस मोड़ पर भी चले आओ.....जहाँ हम खड़े है ,
……….कभी हमें भी जी भर कर देख लो …….आँखे तुम्हारा इन्तजार करती रहती है ;
………कभी कोई एक लफ्ज़ हमारे नाम कर दो .......मन तुम्हे सुनने को तरसते रहताा है !

और फिर..... दुनिया के पास वो निगाहें कहाँ जो हमारे पास है !
और दुनिया के पास वो अलफ़ाज़ कहाँ जो हमारे दिल में है !
और इस फानी दुनिया के पास वो आगोश कहाँ जो हमारे बांहों में है !

all you have to remember that YOU live only once ....!

या तो इस तरह जी लो या फिर उस तरह ही जी जाओ , जो जी रहे हो .
फर्क बहुत मामूली है , उस जहान में मैं नहीं और इस जहान में मेरे सिवा कुछ भी नहीं ..!!!

© विजय

Friday, September 11, 2015

अंत

...............और अंत में कुछ भी न रह जायेंगा !!
न ही ये सम्मान , न ही ये मान ,
न ही ये धन और न ही ये यश !
बस ...चंद यादें कुछ अपनों के मन में 
और वो शब्द भी जो मैंने कभी लिखे थे !!!
एक अनंत की जिज्ञासा भी साथ में थी ,
साथ में ही रही और
अंत में साथ ही चली गयी !
प्रभु तुम ही तो हो एक मेरे
बाकी तो सब जग झूठा .....!
विजय


Friday, September 4, 2015

कही कोई नहीं है जी .......



यूँ ही कभी अगर दुनिया पूछे तुमसे
की मैं कौन हूँ ..
तो तुम कह देना ..
कोई नहीं है जी ..कोई नहीं ,

बस यूँ ही था कोई
जो जाने अनजाने में
बस गया था दिल में ..
पर वो कोई नहीं है जी  ...

एक दोस्त था जो अब भी है ,
जो कभी कभी फ़ोन करके
शहर के मौसम के बारे में पूछता है,
मेरे मन के आसमान पर
उसके नाम के बादल अब भी है ..
पर कोई नहीं है जी ..
कुछ झूठ है इन बातो में
और शायद ,थोडा सा सच भी है
जज्बातों से भरा हुआ वो था
उम्मीदों की जागीर थी उसके पास
पर मैंने ही उसकी राह पर से
अपनी नजरो को हटा दिया
पर कोई नहीं है जी ..

कोई है , जो दूर होकर भी पास है
और जो होकर भी कहीं नहीं है
बस कोई है.." कहाँ हो जानू " ,
क्या ...कौन ..
नहीं नहीं कोई नहीं है जी ...

मेरे संग उसने ख्वाब देखे थे चंद
कुछ रंगीन थे , कुछ सिर्फ नाम ही थे
है कोई जो बेगाना है ,पता नहीं ?
मेरा अपना नहीं ,सच में ?
कोई नहीं है वो जी ....

कोई साथी सा था ..
हमसफ़र बनना चाहता था ,
चंद कदम हम साथ भी चले ..
पर दुनिया की बातो में मैं आ गयी
बस साथ छूट गया
कोई नहीं है जी ....

कोई चेहरा सा रहता है ,
ख्यालो में ...याद का नाम दूं उसे ?
कभी कभी अक्सर अकेले में
आंसू बन कर बहता है
कोई नहीं था जी....

बस यूँ ही 
मुझे सपने देखने की आदत है 
एक सच्चा सपना गलती से देख लिया था कोई नहीं है जी , कोई नहीं है ....

सच में ...पता नहीं लेकिन कभी कभी मैं गली के मोड़ तक जाकर आती हूँ

अकेले ही जाती हूँ और अकेले ही आती हूँ ..कही कोई नहीं है जी ..
कोई नहीं ...

Saturday, August 22, 2015

यूँ ही ...

यूँ ही ...

ज़िन्दगी भर कुछ साए साथ साथ ही चलते है
और उन्ही सायो की याद में ये ख़ाक ज़िन्दगी;
.......कभी कभी गुलज़ार भी होती है !!!

सोचता हूँ अक्सर यूँ ही रातो को उठकर ...
अगर अम्मा न होती ,
अगर पिताजी न होते .
अगर तुम न होती ..
अगर वो दोस्त न होता ...
...चंद तकलीफ देने वाले रिश्तेदार न होते ...
...चंद प्यार करने वाले दुनियादार न होते ..

तो फिर जीना ही क्या होता !
यूँ ही ज़िन्दगी के पागलपन में लिखे गए अलफ़ाज़ भी न होते !

copyright © विजय कुमार

Monday, August 17, 2015

अम्मा.

......मैंने पहले बोलना सीखा ...अम्मा... !

फिर लिखना सीखा.... क ख ग a b c 1 2 3 ...
फिर शब्द बुने !
फिर भाव भरे !

.... मैं अब कविता गुनता हूँ  , कहानी गड़ता हूँ ..
जिन्हें दुनिया पढ़ती है ..खो जाती है .. रोती है ... मुस्कराती है ...हंसती है ..चिल्लाती है ...
.....मुझे इनाम ,सम्मान , पुरस्कार से अनुग्रहित करती है ...!

.....और मैं किसी अँधेरे कोने में बैठकर,
....खुदा के सजदे में झुककर ,
धीमे से बोलता हूँ ...अम्मा !!!

विजय

Sunday, June 7, 2015

||| कविता : ज़िन्दगी ||



भीगा सा दिन,
भीगी सी आँखें,
भीगा सा मन ,
और भीगी सी रात है !


कुछ पुराने ख़त ,
एक तेरा चेहरा,
और कुछ तेरी बात है !

ऐसे ही कई टुकड़ा टुकड़ा दिन
और कई टुकड़ा टुकड़ा राते
हमने ज़िन्दगी की साँसों तले काटी थी !

न दिन रहे और न राते,
न ज़िन्दगी रही और न तेरी बाते !

कोई खुदा से जाकर कह तो दे,
मुझे उसकी कायनात पर अब भरोसा न रहा !

© विजय

Saturday, June 6, 2015

माँ / तलाश




माँ को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा;
वो हमेशा ही मेरे पास थी और है अब भी .. !
लेकिन अपने गाँव/छोटे शहर की गलियों में ,
मैं अक्सर छुप जाया करता था ;
और माँ ही हमेशा मुझे ढूंढती थी ..!
और मैं छुपता भी इसलिए था कि वो मुझे ढूंढें !!
....और फिर मैं माँ से चिपक जाता था ..!!!
अहिस्ता अहिस्ता इस तलाश की सच्ची आँख-मिचोली ,
किसी और झूठी तलाश में भटक गयी ,
मैं माँ की गोद से दूर होते गया ...!
और फिर एक दिन माँ का हाथ छोड़कर ;
मैं ;
इस शहर की भटकन भरी गलियों में खो गया ... !!
मुझे माँ के हाथ हमेशा ही याद आते रहे .....!!
वो माँ के थके हुए हाथ ,
मेरे लिए रोटी बनाते हाथ ,
मुझे रातो को थपकी देकर सुलाते हाथ ,
मेरे आंसू पोछ्ते हुए हाथ ,
मेरा सामान बांधते हुए हाथ ,
मेरी जेब में कुछ रुपये रखते हुए हाथ ,
मुझे संभालते हुए हाथ ,
मुझे बस पर चढाते हुए हाथ ,
मुझे ख़त लिखते हुए हाथ ,
बुढापे की लाठी को कांपते हुए थामते हुए हाथ ,
मेरा इन्तजार करते करते सूख चुकी आँखों पर रखे हुए हाथ ...!
फिर एक दिन हमेशा के हवा में खो जाते हुए हाथ !!!
आज सिर्फ माँ की याद रह गयी है , उसके हाथ नहीं !!!!!!!!!!!
न जाने ;
मैं किसकी तलाश में इस शहर आया था .............
© विजय

Tuesday, June 2, 2015

मेरा कुछ सामान



कुछ दिन पहले मेरा कुछ सामान
मैंने तुम्हारे पास रख छोडा था !

वो पहली नज़र ..
जिससे तुम्हे मैंने देखा था ;
मैं अब तक तुम्हे देख रहा हूँ..

वो पहली बार तुम्हे छूना..
तुम्हारे नर्म लबो के अहसास आज भी
अक्सर मुझे रातों को जगा देते है ..

वो सारी रात चाँद तारो को देखना ..
वो सारी सारी रात बाते करना ....
मैं अब भी तुम्हे चाँद में ढूंढता हूँ

वो तुम्हारे काँधे के पार मेरा देखना...
वो तुम्हारा खुलकर मुस्कराना
तुम्हारी मुस्कान अब तक मेरा सहारा बनी हुई है

वो साथ साथ दुनिया को देखना ..
वो अनजानी गलियों में भटकना ...
तेरे साथ का साया अब तक मेरे साथ है

वो तुम्हारी आँखों की गहरयियो में झांकना ..
वो तुम्हारी गुनगुनाहट को सुनना ...
वो तुम्हे जानना ,तुम्हे पहचानना

वो तुम्हारे कदमो की आहट ..
वो मेरे हाथो का स्पर्श ....
वो हमारा मिलना और जुदा होना

वो मेरा बोलना , वो तुम्हारा सुनना ..
वो मौन में उतरती बाते
वो चुपचाप गहराती राते

वो कविता ....वो गीत ..
वो शब्द ,वो ख़त ,
तुम्हारे लिखे ख़त अब , मेरी साँसे बनी हुई है

वो ढलती हुई शाम ..
वो उगता हुआ सूरज
वो ज़िन्दगी का चुपचाप गुजरना

वो तुम्हारा आना ..
वो तुम्हारा जाना ...
वो ये ;
वो वो .............
जाने क्या क्या ....

इन सब के साथ ,
मेरे कुछ आंसू भी है जांना तुम्हारे पास......

तुम्हे कसम है हमारी मोहब्बत की
मेरा सामान कभी वापस न करना मुझे !!!


© विजय

Thursday, May 21, 2015

शहीद हूँ मैं .....

आज " आतंकवाद विरोध दिवस " पर मैं अपनी एक नज़्म आपको नज़र करता हूँ .
दोस्तों , मेरी ये नज़्म , उन सारे शहीदों को मेरी श्रद्दांजलि है , जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर , देश को आतंक से मुक्त कराया. मैं उन सब को शत- शत बार नमन करता हूँ. उनकी कुर्बानी हमारे लिए है ............

शहीद हूँ मैं .....

मेरे देशवाशियों
जब कभी आप खुलकर हंसोंगे ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी नही हँसेंगे...
जब आप शाम को अपने
घर लौटें ,और अपने अपनों को
इन्तजार करते हुए देखे,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरा इन्तजार नही करेंगे..
जब आप अपने घर के साथ खाना खाएं
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
जो अब कभी भी मेरे साथ खा नही पायेंगे.
जब आप अपने बच्चो के साथ खेले ,
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
मेरे बच्चों को अब कभी भी मेरी गोद नही मिल पाएंगी
जब आप सकून से सोयें
तो मेरे परिवार को याद कर लेना ...
वो अब भी मेरे लिए जागते है ...
मेरे देशवाशियों ;
शहीद हूँ मैं ,
मुझे भी कभी याद कर लेना ..
आपका परिवार आज जिंदा है ;
क्योंकि ,
नही हूँ...आज मैं !!!!!
शहीद हूँ मैं …………..

© विजय

Sunday, April 12, 2015

मेरा होना और न होना ....

उन्मादित एकांत के विराट क्षण ; जब बिना रुके दस्तक देते है .. आत्मा के निर्मोही द्वार पर ... तो भीतर बैठा हुआ वह परमपूज्य परमेश्वर अपने खोलता है नेत्र !!! तब धरा के विषाद और वैराग्य से ही जन्मता है समाधि का पतितपावन सूत्र ....!!! प्रभु का पुण्य आशीर्वाद हो तब ही स्वंय को ये ज्ञान होता है की मेरा होना और न होना.... सिर्फ शुन्य की प्रतिध्वनि ही है....!!! मन-मंथन की दुःख से भरी हुई व्यथा से जन्मता है हलाहल ही हमेशा ऐसा तो नहीं है ... प्रभु ,अमृत की भी वर्षा करते है कभी कभी ... तब प्रतीत होता है ये की मेरा न होना ही सत्य है ....!! अनहद की अजेय गूँज से ह्रदय होता है जब कम्पित और द्रवित ; तब ही प्रभु की प्रतिच्छाया मन में उभरती है और मेरे होने का अनुभव होता है !!! अंतिम आनंदमयी सत्य तो यही है की ; मैं ही रथ हूँ , मैं ही अर्जुन हूँ , और मैं ही कृष्ण .....!! जीवन के महासंग्राम में ; मैं ही अकेला हूँ और मैं ही पूर्ण हूँ मैं ही कर्म हूँ और मैं ही फल हूँ मैं ही शरीर और मैं ही आत्मा .. मैं ही विजय हूँ और मैं ही पराजय ; मैं ही जीवन हूँ और मैं ही मृत्यु हूँ प्रभु मेरे ; किंचित अपने ह्रदय से आशीर्वाद की एक बूँद मेरे ह्रदय में प्रवेश करा दे !!! तुम्हारे ही सहारे ही ; मैं अब ये जीवन का भवसागर पार करूँगा ...!!! प्रभु मेरे , तुम्हारा ही रूप बनू ; तुम्हारा ही भाव बनू ; तुम्हारा ही जीवन बनू ; तुम्हारा ही नाम बनू ; जीवन के अंतिम क्षणों में तुम ही बन सकू बस इसी एक आशीर्वाद की परम कामना है .. तब ही मेरा होना और मेरा न होना सिद्ध होंगा .. प्रणाम.. कविता © विजय कुमार

Wednesday, April 8, 2015

प्रेम



हमें सांझा करना था 
धरती, आकाश, नदी
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमे !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !

धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को सांझा किया !

और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !

हमने देवताओ के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमे खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे  सदा  जीवित !

ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओ की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताए सदियों से !

और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दुसरे के स्त्री और पुरुष है !

पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्ते होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंध में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !

मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !

प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !

मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !

मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?

हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनो में !

और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !

हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्ही दुसरे स्त्री पुरुष में !  

कविता © विजय कुमार 



Thursday, January 22, 2015

पिताजी की स्मृति में...................


दोस्तों, आज पिताजी को गुजरे एक माह हो गए.

इस एक माह में मुझे कभी भी नहीं लगा कि वो नहीं है. हर दिन बस ऐसे ही लगा कि वो गाँव में है और अभी मैं मिलकर आया हूँ और फिर से मिलने जाना है. कहीं भी उनकी कमी नहीं लगी. यहाँ तक कि संक्रांति की पूजा में भी ऐसा लगा कि वो है. बस कल अचानक लगा कि फ़ोन पर उनसे बात करू तो डायल कर बैठा और सिर्फ फ़ोन की घंटी बजती रही. बहुत देर तक..............कोई उसे उठाने वाला नहीं था !

आज सोचा कि पिताजी की स्मृति पर कुछ लिखू.

पिताजी ने बहुत बरस पहले हमारे गाँव को रोजगार के लिए छोड़ दिया था. कलकत्ता में कुछ दिन रहे फिर नागपुर में आकर बसे. वही पर हम तीनो भाई बहनों का जन्म हुआ. और फिर हमारी पढाई नौकरी इत्यादि भी वही की शुरुवात है. पिताजी ने गाँव भले ही छोड़ा हो, लेकिन जैसे कि होता है, गाँव ने उन्हें और हमें नहीं छोड़ा. हम भी यदा-कदा गाँव जाते रहे. लेकिन गाँव में कुछ भी नहीं रहा था !

पिताजी की ज़िन्दगी में पांच टर्निंग पॉइंट आये. [१] उन की नागपुर में नौकरी. [२] मेरा इंजिनियर बन जाना. [३] मेरी माँ की मृत्यु और [४] मेरी बहन की शादी. और फिर एक सबसे बड़ा और पांचवा टर्निंग पॉइंट आया. मेरी बेटी का जन्म, बस वो उसी में रम गए. हम सब एक तरफ और वो और मेरी बेटी एक तरफ. ज़िन्दगी बस गुजरती रही. और फिर इन सब के बाद, बहुत बरसो के बाद, जब हम तीनो भाई बहन धीरे धीरे जमने लगे अपनी ही अलग अलग दुनिया में तो वो कभी गाँव में रहते, कभी हम तीनो के पास रहते. उनकी ज़िन्दगी कुछ इसी तरह से गुजरती रही.

फिर मैंने अपने गाँव के टूटे फूटे घर को थोडा अच्छा बनवा दिया ताकि वो और मेरे ताऊ जी अच्छे से रह सके. ज़िन्दगी अच्छे से बस गुजरती रही.

उनके और हमारे परिवार के अन्य सदस्यों के दो पीढी के जेनेरेशन गैप में कई बाते कभी पसंद की गयी और कई बाते नापसंद की गयी. कुछ आदतों और बातो को स्वीकार किया गया, कुछ पर आपत्ति उठायी गयी. लेकिन मैं हमेशा उनके साथ रहा, भले ही उनकी कुछ बातो से मुझे मेरी विचारधारा नहीं मिलती थी. कई बार मेरा और उनका कई बातो पर विरोध हुआ. और फिर बाद में patch-up भी होता रहा. लेकिन फिर भी मेरे लिए पिता ही थे. और अंत तक रहे.

उनकी जब भी तबियत ख़राब होती, मैं या मेरा छोटा भाई हमेशा उनके पास होते. मेरे छोटे भाई ने भी उनकी बहुत सेवा की.उनके साथ होते. उनका बेहतर से बेहतर इलाज होता और फिर कुछ दिन साथ में गुजारने के बाद फिर गाँव में रहने जाते. जिस गाँव से वो वो सब कुछ खोकर बाहर निकले थे, हम ने उस गाँव को उन्हें वापस दिया था. घर और दूसरी सारी सुविधाओं के साथ !

और वो खुश ही थे. मुझसे हमेशा ही कहते रहते थे की तू इतना अच्छा क्यों है, तू हर जनम मेरा बेटा ही बनना. ऐसे ही प्रेम और अनुराग की बहुत सी बाते. और मैं बस मुस्करा देता था. वो अक्सर मुझसे अपनी की गयी गलतियों के बारे में भी दुखी होकर कहते, जिस पर मेरा कुछ विरोध रहा. लेकिन ये तो ज़िन्दगी है, बस इसे ऐसे ही गुजरना होता है. कभी ख़ुशी, कभी गम, कभी सही तो कभी गलत !

करीब ९-१० साल पहले जब मैंने अपने आपको ज़िन्दगी के एक नए आयाम स्पिरिचुअल डाईमेंशन में परावर्तित किया तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और ख़ुशी भी. और मुझसे कहते रहते कि तू जहाँ पहुंचा है वहां हममें से कोई नहीं पहुंचा. मैं मुस्कराकर कहता, आप सभी न होते तो मैं भी नहीं होता. बस ऐसे ही बातो से जीवन गुजर रहा था.

मैंने अपनी माँ को बहुत चाहा,अब भी चाहता हूँ, मुझे लगता है कि दुनिया में कोई और इंसान कभी भी मुझे मेरी माँ की तरह प्रेम नहीं कर सकेंगा. लेकिन मेरे पिताजी भी मुझे बहुत चाहते थे. मेरे स्वभाव में उन्हें मेरी माँ नज़र आती थी. जो क्षमा की देवी थी !

करीब ७ महीने पहले उनके एक रूटीन चेकअप के दौरान पता चला कि उन्हें liver cancer – terminal stage पर है. हम सब को एक आघात सा लगा. मैंने करीब ४ हॉस्पिटल में उन्हें दिखाया. पर सभी डॉक्टर्स ने एक ही बात कही की अब ज्यादा समय नहीं रहा है, मुश्किल से ६ महीने !

मेरे पिताजी को इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ. मैंने उनसे बैठकर बात की, उनसे कहा कि ये सच है. लेकिन अब इससे भी बड़ी बात ये है कि आपको पूरी तरह से जीना है और अपने जीवन के अंत को स्वीकार करना है. ये सब बाते उनके लिए मुश्किल थी. वो समझ नहीं पा रहे थे. उनके पैर में एक घाव हो गया था, मैं उसकी ड्रेसिंग करता, उन्हें दवाई देता और उनसे ढेर सारी बाते करते रहता. लेकिन जैसे ही मैं कुछ देर के लिए उनसे अलग होता वो अपने एकांत में चले जाते. वो अपने जीवन के इस तरह के अंत को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे.

फिर एक दिन मैंने उनसे पूछा कि वो कहाँ से जीवन को विदा कहना चाहते है, मेरे घर से या छोटे भाई के घर से या गाँव से. उन्होंने सोचकर कहा कि वो गाँव से ही विदा होना चाहते है क्योंकि वो वही पैदा हुए, वही बड़े हुए, वही पर शुरुवाती रोजगार किया और वही उनका ब्याह हुआ, वही पर से वो नागपुर पहुंचे और फिर अब वो वही से, अपने गाँव से विदा होना पसंद करेंगे.

मैंने गाँव में सारी व्यवस्था की. और उन्हें गाँव में लेकर गया. मैंने हर १० दिन में गाँव जाता,हफ्ता भर रहता जाता, उनके साथ वक़्त बिताता. मैंने दवाई और खाने पीने की सारी व्यवस्था कर दी. धीरे धीरे मेरा भी गाँव से एक रिश्ता बन गया. मैंने पिताजी के साथ बहुत देर तक बैठकर बहुत सी बाते करता.

धीरे धीरे मैंने उन्हें मृत्यु को प्रेम से और आनंद से स्वीकार करने के लिए तैयार कर दिया. अब वो सहज हो चुके थे. मैंने उन्हें बहुत सी कहानियाँ बतायी. लेकिन मृत्यु से शायद सभी को डर लगता ही है. उन्हें समय लगा सहज होने के लिए और मेरी ही सोच पर उतर कर जीने के लिए !

ज़िन्दगी अब जैसे रिवर्स गियर में चल रही थी. जैसे उन्होंने मुझे बड़ा किया था वैसे ही अब मैं उनके साथ कर रहा था. मैं उन्हें खिलाता. मैं उन्हें चलाता, मैं कहानी बताता, उनकी ड्रेसिंग करता, उनके कपडे बदलता, उनका मल-मूत्र साफ़ करता. उन्हें अपने साथ लेकर चलाता. उनकी खूब सेवा की.

मैंने उनसे कहा कि जैसे उन्होंने जीवन को स्वीकार किया है, वैसे ही वो मृत्यु को भी स्वीकार करे. जो हो गया वो हो गया. जो बीत गया वो बीत गया. उन्होंने एक भरा पूरा जीवन जिया है. एक परिवार, एक ज़िन्दगी. सब कुछ तो जी लिया है. अब किसी भी बात से उन्हें व्यथित नहीं होना चाहिए.

मैंने उनसे एक बार कहा, हो सकता हो की जीवन की इस आपाधापी में इतने बरसो में कभी मुझसे कोई गलती हुई हो, तो वो मुझे माफ़ जरुर करे. क्योंकि ये ज़िन्दगी तो बहुत सी घटनाओ का ही जमा-पूँजी होती है.तो उन्होंने कहा कि मुझसे कभी भी कोई गलती नहीं हुई और उन्होंने मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया था.

उनके लिए अंतिम दिनों में मैं उनका पुत्र ही नहीं बल्कि उनका दोस्त, उनकी माँ, उनका भाई, उनका सन्यासी गुरु बन गया था जो कि उनसे जीवन के अंत को स्वीकार करने की कला को जानने के बारे में कहता था.

और फिर इसी तरह से पिछले साल के ६ महीने गुजरे और उन्होंने २२ दिसंबर २०१४ को सुबह ५ बजे अंतिम सांस ली !

जैसे एक युग का ही अंत हुआ हो, पर मुझे तो अब भी वो करीब ही है ऐसा ही लगता है, कोई कमी नहीं महसूस होती है. वो अक्सर मुझसे कहते थे, विजया [ उन्होंने मुझे कभी विजय नहीं कहा, बस हमेशा विजया ही कहा, माँ भी विजया ही कहती थी ] तू हमेशा इतना शांत कैसे रह सकता है, इतनी मुश्किल में भी हँसना, ये तो बहुत कठिन है मैं उनसे कहता, यही सबसे आसान है इसी तरह से जीना है. और इसे ही जीवन कहते है. वो मुझे बहुत सा आशीर्वाद देते और मैं बस मुस्करा देता.

आज वो शरीर रूप में नहीं है, लेकिन उनका प्रेम और उनका आशीर्वाद हमेशा ही मेरे साथ है.

उनको नमन और श्रद्धांजलि.

विजय 

[ फोटो में मेरे पिताजी , मेरे बच्चो के साथ ]




एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...