Saturday, January 3, 2009
सलीब
कंधो से अब खून बहना बंद हो गया है ...
आँखों से अब सूखे आंसू गिर रहे है..
मुंह से अब आहे - कराहे नही निकलती है..!
बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
इस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!
हँसता हूँ मैं ,
कि..
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...
सुना है , सदियों पहले किसी
देवता ने भी सलीब लटकाया था..
दुनियावालों को उस देवता की सलीब ,
आज भी दिखती है ...
मैं देवता तो नही बनना चाहता..,
पर ;
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.....
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता
घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...
-
घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...
-
मिलना मुझे तुम उस क्षितिझ पर जहाँ सूरज डूब रहा हो लाल रंग में जहाँ नीली नदी बह रही हो चुपचाप और मैं आऊँ निशिगंधा के सफ़ेद खुशबु के साथ और त...
कोई मेरी सलीब भी तो देखे....
ReplyDeleteकोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.
ऐसा क्यूँ लिखते हो इतना दर्द भरा.....
ऐसा क्यूँ नही कहते कोई मेरे साथ भी जिए कोई मेरे साथ भी तो मरे....
दुनिया हसाना जानती है हँसाएगी आपको आपके हर दुःख है हर गम को पी जायेगी...
रोने की बात न कीजिये क्या आप चाहते हैं उसे भी उतना दुःख हो.......?
दुःख को बाटा जाता है हँसी से आसुओं से नही.....
कोई हमारे साथ-साथ रोने लगे to दुःख की ज्यादा अनुभूति होती है होंसला bhi टूट जाता है........
बच्चा हूं कुछ ग़लत कहा तो माफ़ करना/...
आपका हीरो.........
अक्षय-मन
दर्द उडेल दिया है ! मार्मिक !
ReplyDeleteबहुत मार्मिक लिखी है आपने यह कविता भाव बहुत अच्छे हैं
ReplyDeleteसच में ये तो भावुक कर गई।
ReplyDeleteकोई मेरी सलीब भी तो देखे....
कोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.
पर विजय जी किस समय की बात कर रहे हो। आज के समय की। तो ........
आँशू निकल आए, तो खुद ही पोछिएं
आएंगे पोछंने तो सौदा करेंगे।
अज्ञात
बहुत ही अच्छी रचना...मन की पीड़ा को कुशलता से उकेरा है आपने...वाह...
ReplyDeleteनीरज
वेदना के स्वर साफ़ सुनायी दे रहे हैं..
ReplyDelete-भाव अभिव्यक्ति बहुत ही कुशलता से कविता में हुई है..
-सच है जीवन आसान नहीं...न जाने कितनी सलीबों का वज़न ढोना पड़ता है ...
बहुत सी सलीबें लटका रखी है मैंने यारों ;
ReplyDeleteइस दुनिया में जीना आसान नही है ..!!!
ये सारी सलीबें ;
सिर्फ़ सुबह से शाम और
फिर शाम से सुबह तक के
सफर के लिए है ...
-सुंदर पंक्तियाँ !
aankhon se ab sookhe aansoo girte hain............bahut hi dard ,bahut hi aatmvedna bhar di hai aapne in panktiyon mein........na jane kaise aapne is dard ko shabd diye honge.......har shabd kah raha hai .............koi meri saleeb par bhi to roye
ReplyDeleteकोई मेरी सलीब भी तो देखे....
ReplyDeleteकोई मेरी सलीब पर भी तो रोये.
वाह क्या बात है, क्या खूब लिखा है
नयी सोच की शुरुआत
बहुत अच्छी कविता!
ReplyDelete"ye sari sleebeiN sirf subah se shaam ke safar ke liye haiN.."
ReplyDeleteमन का मर्म, शब्दों का जादू, काव्य की अदभुत शैली....
एक अच्छी रचना बन पड़ी है
आज के बाजारवाद के जीवन की अच्छी अभ्व्यक्ति की है आपने अपनी कविता के माध्यम से
बधाई स्वीकारें !
---मुफलिस---
......अद्भुत, भावों की सरस अभिव्यंजना. कभी हमारे 'शब्दशिखर' www.shabdshikhar.blogspot.com पर भी पधारें !!
ReplyDeletebahut hee geharalee per liye huye hai ye nazm aapki.
ReplyDeleteparhne walon ko dard mehasoos kara de aisee lekhani hai aapki
zor - e kalam aur jyada
daad kabool farmayein
fiza
बहुत ही भावनात्मक..
ReplyDeleteनववर्ष की शुभकामनाएँ.
Vijayji, "koyi meree saleeb par bhee to roye.." har kiseekee tamanna aapne shabdankit kar dee hai...!
ReplyDeleteAur Akshayne behtareen comment diya hai...behad samvedansheel hai ladka hai !