Wednesday, February 11, 2009
सरहद
सरहदे जब भी बनी ,
देश बेगाने हो गये
और इंसान पराये हो गये !!!
हमने भी एक सरहद बनायी है ;
एक ही जमीन को
कुछ अनचाहे हिस्सों में बांटा है ;
उस तरफ कुछ मेरी तरह ही ;
दिखने वाले लोग रहते है ;
इस तरफ के बन्दे भी कुछ ;
मेरी तरह की बोली बोलते है ;
फिर ये सरहदें क्यों और कैसी ..
जब से हम अलग हुए ,
तब से मैं ...इंसान की तलाश में ;
हर जगह अपने आप को ढूँढता हूँ
कभी इस तरफ के बन्दे जोश दिखाते है
कभी उस तरफ से नफरत की आग आती है
कभी हम मस्जिद तोड़ते है
कभी वो मन्दिर जलाते है ...
देश क्या अलग हुए .
धर्म अंधा हो गया
और खुदा और ईश्वर को अलग कर दिया
सुना है कि ;
जब सियासतदार पास नहीं होते है
तो ;
दोनो तरफ के जवान पास बैठकर
अपने बीबी -बच्चो की बातें करते है
और साथ में खाना खातें है
मैं सोचता हूँ
अगर सियासतदारों ने ऐसे फैसलें न किये होतें
तो आज हम ईद -दिवाली साथ मनाते होतें !!!!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता
घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...
-
घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...
-
मिलना मुझे तुम उस क्षितिझ पर जहाँ सूरज डूब रहा हो लाल रंग में जहाँ नीली नदी बह रही हो चुपचाप और मैं आऊँ निशिगंधा के सफ़ेद खुशबु के साथ और त...
बहुत अच्छी कविता है, आपने तितलियों के लिए कुछ पूछा था, उसके लिए आपने आगे पत्राचार नहीं किया, ख़फ़ा हो गये क्या?
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम । ग़ज़लों के खिलते गुलाब
Hi Vijay,
ReplyDeleteAsusual your word depict what is there in the heart and mind of stupid common man!!
विजय जी आप की रचना पढ़ कर निदा फाजली साहेब की लिखी ग़ज़ल..."इंसान परेशां यहाँ भी है वहां भी...." याद आ गई....ये ग़ज़ल मैंने पुणे की प्रदर्शनी के दौरान पढ़ी थी तब से अब तक जेहन में है.......आप का कहना सच है...दुनिया में सब इंसान एक से ही होते हैं सियासतदां और सरहदें उन्हें अलग कर देते हैं...सच्ची बात लिखी है अपनी रचना में...
ReplyDeleteनीरज
सुंदर भाव को लेकर, सुंदर शब्दों से, एक सुंदर सी रचना रच दी आपने। दिल खुश हो गया। पर ये जज्बात हर कोई क्यों नही समझता?
ReplyDeletebeautifully expressed....
ReplyDeleteसरहदें इश्क़ की न ठहराएँ
इश्क़ से काइनात हारी है ....
Regards
दोनों तरफ रहते इन्सान है
ReplyDeleteफिर भी इंसान ही परेशान है
खुदा और ईश्वर को देख लो
कर रहा खूब ही परेशान है।
BAHOT HI BADHIYA BHAV,BEHAD SANJIDAGI SE LIKHI HUI SAHI KAHA NEERAJ JI NE KE APKO PADH KE NIDA FAZALI SAHAB KI YAAD AAGAI... BAHOT KHUB LIKHA HAI LAST KI CHAAR LINE JIWANT KAR GAI HAI PURI KAVITA KO BAHOT BADHIA DHERO BADHAI KUBUL KAREN...
ReplyDeleteARSH
सरहदों के बटने से दिल में पड़े दरारों का बहुत सुंदर चित्रण !!!
ReplyDeleteसुना है कि ;
ReplyDeleteजब सियासतदार पास नहीं होते है
तो ;
दोनो तरफ के जवान पास बैठकर
अपने बीबी -बच्चो की बातें करते है
और साथ में खाना खातें है
सही कहा आपने विजय जी ..
सरहदें इश्क़ की न ठहराएँ
ReplyDeleteइश्क़ से काइनात हारी है ...
khoob kaha.....
bahut sundar dhang se bhavon ko ukera hai..........sachchyi bhi yahi hai ...........bas siyasatdaron ke changul mein fanse hum bant rahe hain
ReplyDeletebaki alag to kuch bhi nhi hai.........bahut khoob.
आपके samvedansheelta को naman है..बहुत ही सही कहा आपने.....काश सब ऐसा सोचते.
ReplyDeleteजब से हम अलग हुए ,
ReplyDeleteतब से मैं ...इंसान की तलाश में ;
हर जगह अपने आप को ढूँढता हूँ
.......
bahut hi achhi
सुंदर भाव, शब्दों का सुंदर चयन और सुंदर शैली का सुंदर समन्वय! कविता बहुत अच्छी लगी।
ReplyDeleteमहावीर शर्मा
विजय जी,
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है. शब्दओं के जाल में बांध लेते है आप. वैसे
" सुना है कि ;
जब सियासतदार पास नहीं होते है
तो ;
दोनो तरफ के जवान पास बैठकर
अपने बीबी -बच्चो की बातें करते है
और साथ में खाना खातें है "
इन पंक्तियों के लिये मुझे यही कहना है कि कुछ कुछ 8PM व्हिस्की की याद भी दिलाती है.
मुकेश कुमार तिवारी
बहुत अच्छी कविता है..यूँ ही लिखते रहिये...आभार.
ReplyDelete