Monday, March 16, 2009
देह
देह के परिभाषा
को सोचता हूँ ;
मैं झुठला दूं !
देह की एक गंध ,
मन के ऊपर छायी हुई है !!
मन के ऊपर परत दर परत
जमती जा रही है ;
देह ….
एक देह ,
फिर एक देह ;
और फिर एक और देह !!!
देह की भाषा ने
मन के मौन को कहीं
जीवित ही म्रत्युदंड दे दिया है !
जीवन के इस दौड़ में ;
देह ही अब बचा रहा है
मन कहीं खो सा गया है !
मन की भाषा ;
अब देह की परिभाषा में
अपना परिचय ढूंढ रही है !!
देह की वासना
सर्वोपरि हो चुकी है
और
अपना अधिकार जमा चुकी है
मानव मन पर !!!
देह की अभिलाषा ,
देह की झूठन ,
देह की तड़प ,
देह की उत्तेजना ,
देह की लालसा ,
देह की बातें ,
देह के दिन और देह की ही रातें !
देह अब अभिशप्त हो चुकी है
इस से दुर्गन्ध आ रही है !
ये सिर्फ अब इंसान की देह बनकर रह गयी है :
मेरा परमात्मा , इसे छोड़कर जा चूका है !!
फिर भी घोर आश्चर्य है !!!
मैं जिंदा हूँ !!!
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देह की परिभाषा गजब का चित्रण किया है । बहुत सुन्दर रचना । बधाई
ReplyDeletebahot badhiya paribhashit kiya hai aapne deh ko .... bahot khub... deh ko is tarah se bhi dekha jaa sakta hai ye aapne bata diya jo satya hai..
ReplyDeletearsh
जीवन के इस दौड़ में ;
ReplyDeleteदेह ही अब बचा रहा है
मन कहीं खो सा गया है !
मन की भाषा ;
अब देह की परिभाषा में
अपना परिचय ढूंढ रही है !!
बहुत सुन्दर सही बात कही आपने ....अच्छी कविता लगी आपकी यह
देह की सर्वोच्च आकांक्षा ही तो जीवन है,
ReplyDeleteबहूत खूबसूरत है आपकी कविता, गहरे एहसास लिए ..............
देह ब्लॉग
ReplyDeleteऔर
मन पोस्ट
हो गया है।
न देह खोई है
न मन खोया है
उसे नया आयाम
अब मिला है
नई पहचान
सच मिली है।
इंटरनेट परमात्मा
ब्लॉग आत्मा
पोस्ट मन हो गया
और टिप्पणी देह
न जाने कहां खो गई।
It couldn't have been better than this to describe "Deh..."
ReplyDeleteमैसेज आया, मैसेज आया,
ReplyDeleteदेह की इक परिभाषा लाया,
देह पे देह का कब्जा देखा,
मन ढूंढा तो कहीं ना पाया,
एक अजूबा, बिना आत्मा,
देह को तेरी ज़िंदा पाया,
मन को इन्टरनेट से जोड़ा,
और देह को ब्लॉग बताया
इन मनमोहक टिप्पणियों में,
खुद को भी 'अविनाश' सा पाया
बहुत प्यारी रचना विजय जी,,
हमें भी लिखने को प्रेरित करती है,,,
इश्वर करे आप यूं ही लिखते रहे,,,और हम कमेंट देते रहे,,,,,
हमारी भी कलम आपके प्रताप से कुछ लिख जाती है,,, ,
हाँ आप के जितना फास्ट नहींलिख पाते,,परंतु आपका आशीर्वाद रहा तो ये हुनर भी आ जायेगा,,,, :::::)))))
aaj tak likhi kavtioon mein sarvsheshtra, jab manu ji, arsh ji aur digambar naswaitna kuch keh chuke hain to merei kya aukaat...
ReplyDelete...manu ji ki kavit bhi bahut pasand aie. Samajh nahi aaya ki kisko sarvsheshtra kahoon...
...dono ko itni acchi kavita share kare hetu dhamyavaad...
jo zinda hai wo deh nhi hai.....satya to wahi hai.......sahi kaha aapne deh ki koi paribhasha nhi kyunki deh ka astitva hi nhi aur jo hai wo hi kah raha hai aur wo hi chirantan satya hai.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विजय जी बहुत सशक्त रचना है ,खास तौर से ये लाइने-
ReplyDeleteदेह की भाषा ने मन के मौन को कंही जीवित ही मृत्युदंड दे दिया है .
परमात्मा से रहित देह तो जीवित दिखती भर है जीवित होती नहीं है इसीलिए -"देह का सुख क्षणिक है पर प्राण सुख चिरन्तन है .
behad sunder abhivyakti.
ReplyDeleteजीवन के इस दौड़ में ;
देह ही अब बचा रहा है
मन कहीं खो सा गया है !
मन की भाषा ;
अब देह की परिभाषा में
अपना परिचय ढूंढ रही है !!
waah
सत्य है गुरुदेव!
ReplyDeleteसोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब है बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं!
---
गुलाबी कोंपलें
विजय जी इस रचना को पढ़ कर लगने लगा है की आप अपने रंग में फिर से वापस लौट रहे हैं...अच्छी और सार्थक रचना...
ReplyDeleteनीरज
Bahut hi khubsurat bhav..badhai...
ReplyDeleteदेह की वासना
ReplyDeleteसर्वोपरि हो चुकी है
और
अपना अधिकार जमा चुकी है
मानव मन पर !!!
deh aur mn ke paarasparik rishte ko achhe tareeqe se paribhaashit kiya hai...
aapka rachna-sansaar hai hi aisa..
bs aap hi kaheen nazareiN hataa lete haiN kabhi-kabhi...
bahut-bahut badhaaee
---MUFLIS---
देह की एक गंध ,
ReplyDeleteमन के ऊपर छायी हुई है !!
बहुत बढ़िया .बधाई .
बहुत सही कहा आपने.....देह यानि इन्द्रियजनित वासनाओं के भूल भुलैया में भटक कर मनुष्य ने स्वयं को अधम कर लिया है.
ReplyDeleteसशक्त रचना...
अतुलनीय
ReplyDeleteआज क्या बात जिसे देखो वही गहरी गहरी बातें लिख रहा है। सच विजय जी आपके पास भी विषयों की कमी नही। आज देह के भाव कितने सुन्दर शब्दों से लिखा है। दिल खुश हो गया पढकर। आज काफी थक गया था मानसिक रुप से। पर इनको पढकर काफी राहत मिली। सच आप गजब का लिखते है।
ReplyDeleteदेह अब अभिशप्त हो चुकी है
इस से दुर्गन्ध आ रही है !
ये सिर्फ अब इंसान की देह बनकर रह गयी है :
मेरा परमात्मा , इसे छोड़कर जा चूका है !!
फिर भी घोर आश्चर्य है !!!
मैं जिंदा हूँ !!!
बहुत उम्दा।
bahut achchhe ..sundar bhavon valee kavita...
ReplyDeleteआप की कविता मेँ गहन अनुभूइयाँ तरलता से बहतीँ हैँ इसी तरह लिखा कीजिये --
ReplyDelete- लावण्या
अब और तुम्हें मैं दूँ क्या ? जीवन की शेष कहानी दूँ ..
ReplyDeleteक्या आत्म ज्ञान करके कुंठित , देहातुर , सांसो की क्षुद्र रवानी दूँ ,, बहुत ही वेहतरीन कविता है,,
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084