Thursday, March 12, 2009
जानवर
अक्सर शहर के जंगलों में ;
मुझे जानवर नज़र आतें है !
इंसान की शक्ल में ,
घूमते हुए ;
शिकार को ढूंढते हुए ;
और झपटते हुए..
फिर नोचते हुए..
और खाते हुए !
और फिर
एक और शिकार के तलाश में ,
भटकते हुए..!
और क्या कहूँ ,
जो जंगल के जानवर है ;
वो परेशान है !
हैरान है !!
इंसान की भूख को देखकर !!!
मुझसे कह रहे थे..
तुम इंसानों से तो हम जानवर अच्छे !!!
उन जानवरों के सामने ;
मैं निशब्द था ,
क्योंकि ;
मैं भी एक इंसान था !!!
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ReplyDeletewaa ji waah achhe aur prashansaniya bhav.... imaandaari baratate huye .... badhiya hak adaa kiya hai aapne....
ReplyDeletenishbd hun... sahi kaha hai aapne... behad khub...
arsh
bahut badiya vijay ji . badhai
ReplyDeleteaaj ke zamane ka yahi sach hai,bahut khub.
ReplyDeleteमानव मन में मजबूती
ReplyDeleteसे बसे हुए जानवरों की
जान है आज के इंसान
की सही पहचान
मान न मान
इंसान में जानवर ही
बसता है ले तू जान।
आज के वक़्त का सही चित्रण ..अच्छा लिखा आपने
ReplyDeleteमुझे अज्ञेय जी की एक कविता , जो मैं अक्सर सुनाता हूँ:
ReplyDelete" सांप
तुम सभी तो हुए नहीं
शहर में रहे नहीं
जहर कहाँ से पाया
डसना कहाँ से सीखा? "
और एक शेर :
"अब शहर में घुमते हैं शान से
जंगलों में भेड़िये मिलते नहीं."
आपकी नज़्म पढ़ कर याद आ गए...खूब लिखा है आपने...आज का सच.
नीरज
i hadnt been reading ur poem coz m not much in2 hindi...but 2day i decided 2 go thru' it...n m glad i did...
ReplyDeleteit awesome...n sadly,true...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteinsaan se bada jaanwar is sansaar mein milega bhi nhi ...........haqeeqat bayan kar di aapne.
ReplyDeletehmm insaan the isiliye nishabd the
ReplyDeletebhaut sachhi aur ghari baat
इंसान ही ऐसा जानवर जो अपने कर्म को सही साबित करने के लिए पता नही कितने तर्क देता है बेशर्मी के साथ। आपकी रचना आज का सच है।
ReplyDeleteऔर क्या कहूँ ,
जो जंगल के जानवर है ;
वो परेशान है !
हैरान है !!
इंसान की भूख को देखकर
सच।
अच्छी कविता है भाई इसके लिये बधाई और होली मुबारक...
ReplyDeleteसांप, तुम सभ्य तो ना हुए,
ReplyDeleteनगर में रहना भी ना आया,
फिर कहाँ से डसना सीखा,
विष कहाँ से पाया,,,
एकदम यही पंक्तियाँ मुझे भी याद हो आयी थी कविता पढ़ते पढ़ते,,,,,
कमेंट देने आया तो नीरज जी ने भी जिक्र कर रखा था,,
बहुत शानदार प्रस्तुति ,,,,,
आज के आदमी की,,,
ये हुई न बात !!
ReplyDeleteजब कोरी कल्पनाओं पर ही निर्भर नहीं रहा जाता , तब सम्पूर्ण रचना-संसार
वास्तविकता का चोला पहन खुद बोलने लगता है . संप्रेषण की कला हमेशा ही महतवपूर्ण प्रभाaav छोड़ती है ....
आपके स्वाभाविक विचार अनुपम-काव्य बन कर
सहज ही आकर्षित करने लगते हैं ........
आप पाठकों के चहेते बन जाते हैं ...
और यही आपकी शाश्वत उपलब्धि है ...बधाई .
आपकी रचना सम-सामायिक सन्देश लिए हुए है
आपकी काव्य-कुशलता को दर्शाने में सक्षम है ........
(आप भाग्य-शाली हैं कि आपको श्री नीरज जी जैसे गुरुवर की राहनुमाई हासिल है ,
और हाँ ! उनकी प्यारी-सी डांट भी तो खूब
काम आई है......)
फिर से मुबारकबाद . . . . . .
---मुफलिस---
Vijay ji
ReplyDeletebahoot खूब लिखा है आपने
yatharth, आज का सच.
एक इंसानी शेर यहाँ पर देखा मैंने , एक कुत्ता चौराहे पर चिल्लाता था ,
ReplyDeleteएक बिल्ला घर से आता था , एक गीदड़ घर को जाता था ,,
कही किसी कोने में मैंने एक सांपो की वस्ती भी देखि
जिसको खुद ही पैदा करता उसको ही खाता जाता था ,,
बहुत ही वेहतरीन कविता है,,
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084