Wednesday, November 19, 2008

परायों के घर

कल रात दिल के दरवाजे पर दस्तक हुई;
सपनो की आंखो से देखा तो,
तुम थी !

मुझसे मेरी नज्में मांग रही थी,
उन नज्मों को, जिन्हें संभाल रखा था, मैंने तुम्हारे लिए,
एक उम्र भर के लिए ...


आज कही खो गई थी,
वक्त के धूल भरे रास्तों में ......
शायद उन्ही रास्तों में ..
जिन पर चल कर तुम यहाँ आई हो !!


क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं कि,
परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते........

5 comments:

  1. achhi ban gayee haen yae kavita likhtey rahae

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  2. .."praayo ke ghr bhigi aankho se nhi jate" mun ki gehri tees ko lafzon mei piro kr ek hriday.sparshi kavita ka roop de dala aapne. iss "praayo" lafz mei kitna apnapan hai, ise aapse behtar koi nahi samajh sakta. yu lagta hai, guzri hui yaadon ki ek aahat.si palkon mei kyaa chamaki, bs chhalak kr sidhi kaagaz pr utar aaee.. waah ! isse kehte hain kavita kehne ke la.jwaab hunar. ---MUFLIS---

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  3. अरे! यहाँ तो खूबसूरत नज़मो का खजाना है!

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  4. क्या किसी ने तुम्हे बताया नहीं कि,
    परायों के घर भीगी आंखों से नहीं जाते........
    ..सच भींगी आंखों का मर्म पराये कभी नहीं समझ सकते

    ..बहुत बढ़िया

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