Monday, December 8, 2008

अन्तिम पहर


देखो आज आकाश कितना संछिप्त है,
मेरी सम्पूर्ण सीमायें छु रही है आज इसे;
जिंदगी को सोचता हूँ , मैं नई परिभाषा दूँ.
इसलिए क्षितिज को ढूँढ रही है मेरी नज़र !!!

मैं चाह रहा हूँ अपने बंधंनो को तोड़ना,
ताकि मैं उड़ पाऊं ,सिमट्ते हुए आकाश में;
देखूंगा मैं फिर जीवन को नए मायनों में.
क्योंकि थक चुका है मेरे जीवन का हर पहर !!!

वह क्षितिज कहाँ है ,जहाँ मैं विश्राम कर सकूं;
उन मेरे पलो को ; मैं कैद कर सकूं,
जो मेरे जीवन की अमूल्य निधि कहलायेंगी.
जब आकाश सिमटेगा अपनी सम्पूर्णता से मेरे भीतर. !!!

निशिगंधा के फूलों के साथ तुम भी आना प्रिये,
प्रेम की अभिव्यक्ति को नई परिभाषा देना तुम;
क्षितिज की परिभाषा को नया अर्थ दूँगा मैं.
रात के सन्नाटे को मैं थाम लूंगा , न होंगा फिर सहर !!!

पता है तुम्हे ,वह मेरे जीवन का अन्तिम पहर होंगा,
इसलिए तुम भिगोते रहना ,मुझे अपने आप मे;
खुशबु निशिगंधा की ,हम सम्पूर्ण पृथ्वी को देंगे.
थामे रखना ,प्रिये मुझे ,जब तक न बीते अन्तिम पहर !!!

प्रेम ,जीवन ,मृत्यु के मिलन का होंगा वह क्षण,
अन्तिम पहर मे कर लेंगे हम दोनों समर्पण ;
मैं तुम मे समा जाऊंगा , तुम मुझमे.
जीवन संध्या की पावन बेला मे बीतेंगा हमारा अन्तिम पहर !!!

13 comments:

  1. khubsurat jazbaton se saji sundar rachana ke liye bahut badhai.

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
    बहुत बढिया कहा है-

    प्रेम ,जीवन ,मृत्यु के मिलन का होंगा वह क्षण,
    अन्तिम पहर मे कर लेंगे हम दोनों समर्पण ;
    मैं तुम मे समा जाऊंगा , तुम मुझमे.
    जीवन संध्या की पावन बेला मे बीतेंगा हमारा अन्तिम पहर !!!

    ReplyDelete
  3. khud to kehte ho " veh kshitij kahaa hai jaha maiN vishraam kr sakooN.." aur khud hi poochhte ho
    ye priytam ke liye hai ya khuda ke liye..? Prem ki anant chaah se kahee aage aa kr dekho... jahaaN sb shaashvat hai, sb nishchhal hai,
    sb nirmal hai, sb eeshwareey hai.
    Prem to hai hi, usse wo maan, izzat
    wo rutba bhi do jahaaN sb khudaai lagne lge...maine kahaa bhi to hai
    sparsh ki simaao se azaad, mehsoos kr paane ki anupam paribhasha meiN
    Aur dost iss aseem prem ka koi naam to nahi hai...koi nishchit vyaakhya bhi to nahi hai....
    bs andar hi kahee dhoondna hai, jahaaN wo hai, tha aur rehagaa bhi.
    ---MUFLIS---

    ReplyDelete
  4. उदास न हो
    जरा ऊपर देख
    प्यार की झालरों पर है तेरा नाम
    उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू

    ReplyDelete
  5. वह क्षितिज कहाँ है ,जहाँ मैं विश्राम कर सकूं;
    उन मेरे पलो को ; मैं कैद कर सकूं,
    जो मेरे जीवन की अमूल्य निधि कहलायेंगी.
    जब आकाश सिमटेगा अपनी सम्पूर्णता से मेरे भीतर.

    बहुत सुन्दर.............

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब , एक निवेदन है की टेम्पलेट और फॉण्ट का रंग बदल दे तो देखने में सुकून मिलेगा.

    ReplyDelete
  7. अच्छी रचना बन पड़ी है.

    ReplyDelete
  8. अच्छी रचना है विजय जी। बधाई।

    ReplyDelete
  9. बहुत प्रभावी लिखा है। बधाई स्वीकारें।

    ReplyDelete
  10. aapki rachnayein jeevan ka darshan karati hain........man ka shahar....jazbaat........sab kucch kah jati hain...........iske baad kucch bachta hi nhi kahne ko
    aapse bahut kucch sikhne ko milega
    jo hum kabhi kabhi kah nahi pate wo aapne bahut hi achche dhang se kaha.

    ReplyDelete
  11. अंतिम प्रहर में,पूर्णता पाने का कामना - अच्छा लिखा है !

    ReplyDelete
  12. प्रेम व भावनाओं की उड़ान का सुन्दर मिश्रण है आपकी रचना में

    ReplyDelete
  13. देखो आज आकाश कितना संछिप्त है,
    मेरी सम्पूर्ण सीमायें छु रही है आज इसे;
    जिंदगी को सोचता हूँ , मैं नई परिभाषा दूँ.
    इसलिए क्षितिज को ढूँढ रही है मेरी नज़र !!! सच में जिन्दगी को एक नयी परिभाषा ही दी जाए..... प्रभावशाली रचना......

    ReplyDelete

एक अधूरी [ पूर्ण ] कविता

घर परिवार अब कहाँ रह गए है , अब तो बस मकान और लोग बचे रहे है बाकी रिश्ते नाते अब कहाँ रह गए है अब तो सिर्फ \बस सिर्फ...